‘कॉनमैन’ के प्रति पाठकों की राय

‘कॉनमैन’ के सन्दर्भ में सब से पहले मैं ये कबूल करना चाहता हूँ कि मॉडर्न इलेक्ट्रॉनिक टेक्नोलॉजीज के बारे में मेरी जानकारी बहुत मामूली है और साईबर क्राइम्स के बारे में मैं जो कुछ भी जानता हूँ, वो अखबारों के सदके जानता हूँ इसलिए उपन्यास में कुछ तकनीकी कमियां आ जाना स्वाभाविक था लेकिन साथ में ये भी कहना चाहता हूँ कि उन कमियों ने मोटे तौर पर कथ्य और उस की रवानगी पर कोई असर नहीं डाला था इसलिए गनीमत हुई की पाठकों को इस सिलसिले में कोई शिकायत न हुई । सब को उपन्यास रोचक, तेजरफ्तार, एक ही बैठक में पठनीय लगा । अलबत्ता बटाला के प्रोफेसर रविन्द्र जोशी इस संदर्भ में अपवाद रहे जिन का कहना है कि:

कॉनमैन’ आपके खुद के स्थापित किये मेयार पर खरा नहीं उतरता । कथ्य में न पकड़ है न सस्पेंस । वक़्त से मार खाया भी लगता है । इसे सहज ही सुनील सीरीज का वॉटरलू कहा जा सकता है । बहुत निराश किया कॉनमैन ने । ये कहीं बेहतर उपन्यास होना चाहिये था । या शायद मैंने ही आपसे कुछ ज्यादा उम्मीदें लगा ली थीं ।

मेरा जोशी साहब से निवेदन है कि मैंने मेजोरिटी के साथ चलना है । खुदा का शुक्र है कि मेजोरिटी की वो राय नहीं है जो उनकी है । इस बार तो जोशी साहब माइनॉरिटी भी नहीं हैं, मेरे सारे अन्य पाठक गवाह हैं कि अकेले हैं । मैं उनकी राय से इत्तफाक जाहिर करूँ तो क्या हम दो जाने उन बेशुमार पाठकों का मुकाबला कर सकेंगे जिन्हें उपन्यास खूब खूब पसंद आया!

- मैंने उपन्यास में रानीखेत में एग्रीकल्चरल लैंड के बारे में लिखा है लेकिन देहरादून के जीवन तिवारी ने मुझे सूचित किया है कि रानीखेत कैंटोनमेंट एरिया है, वहां एग्रीकल्चरल लैंड नहीं है ।

- लखनऊ के अभिषेक अभिलाष मिश्र को
, जो कि शायद ही कभी मुक्त कंठ से मेरे किसी उपन्यास की प्रशंसा करते हैं, ‘कॉनमैन’ इतना पसंद आया कि उन्होंने उसे ‘मास्टरपीस’, ‘आउटक्लास’, ‘बेस्ट ऑफ़ सुनील, ‘माइंडब्लोइंग’, ‘रमाकांत एंड सुनील रॉक्स’, ‘out and out a unique entertainment’ जैसे अलंकरणों से नवाजा और उसे ‘खून के आंसू’, ‘निम्फोमैनिआक’, ‘मेरी जान के दुश्मन’ के समकक्ष रखा ।

- लखनऊ के मदन मोहन अवस्थी कहते हैं कि वो ‘कॉनमैन’ को एक ही सांस में ‘पी
गए । उन्होंने उपन्यास को ‘जबरदस्त, ‘लाजवाब बताया जिसके प्रवाह में वो खो गए । ‘कॉनमैन’ में उन्हें सुनील के चरित्र में ये सकारात्मक बदलाव दिखाई दिया कि उसकी सुनिलियन पुड़िया व नाटकीयता में कमी आई है जो कि सार्थक बदलाव है । अब सुनील सुलझा हुआ और समझदार प्रतीत होता है । (जनाब, पहले कैसे प्रतीत होता था?)

- भोपाल के लक्ष्मण आसुदानी कहते है कि उन्हें ‘कॉनमैन’ में सब से अच्छी बात ये लगी की
 उसका विषय साईबर क्राइम था जो कि पढ़ने के लिहाज से नया था, इस विषय पर किसी और लेखक की रचना उन्होंने नहीं पढ़ी थी । लेकिन सस्पेंस के लिहाज से उपन्यास उन्हें मेरे पुराने उपन्यासों की तुलना में कमतर लगा । कहते हैं कि ये रचना किसी और ने लिखी होती तो वे उसकी वाह वाह करते लेकिन मेरे से उनकी अपेक्षाएं अलग है क्योंकि मैंने ही खुद अपने लिए जो एक स्टैंडर्ड सेट किया है ‘कॉनमैन’ उस तक नहीं पहुँचता ।

- नरवाना, जिला जींद के राममेहर सिंह खुद लेखक हैं और पिछले चार साल से मेरे नियमित पाठक हैं । कहते हैं कि उपन्यास बेहद पसंद आया, सुनील अपने पूरे रंग पर लगा, रमाकांत ने भरपूर रौनक लगायी, कहानी बहुत अच्छी और कसी हुई लगी, कातिल का
 एहसास आधे में ही हो गया फिर भी नावेल पैसावसूल लगा लेकिन मैं आज की टेक्नोलॉजी के साथ सही तरीके से न्याय नहीं कर पाया और यह कमी नावल में बहुत अखरती है । मसलन:


·        
कातिल – या अन्य सस्पेक्ट - CCTV में जाते वक़्त दर्ज होता है तो आते वक़्त क्यों नहीं?
·         कातिल की डिटेल्स खंगालने के लिए पुलिस ने ‘मोबाइल लोकेशन ट्रैकिंग सिस्टम का सहारा क्यों न लिया जोकि पुलिस ऐसे मामलात में आम लेती है?

उपरोक्त के सन्दर्भ में रामममेहर जी से मेरा निवेदन है:

·        
मुझे खेद है की CCTV कैमराज सम्बन्धी प्रसंग को मैं ठीक से हैंडल न कर पाया, वस्तुत: तथ्य की रवानगी में मुझे सूझा ही नहीं कि होटल में लॉबी में ही नहीं, हर जगह सर्वेलेंस कैमरे होते हैं, सूझता तो ये मामूली खामी थी जिसे ये लिख के दुरुस्त किया जा सकता था कि प्रह्लादराज ने होटल के किसी स्टाफ तो रिश्वत दे कर अपने से सम्बंधित आपत्तिजनक फुटिंग इरेज करा दी थी और उस स्टाफ को बड़े नाटकीय ढंग से कातिल के रूबरू किया जा सकता था ।

·        
‘मोबाइल लोकेशन ट्रैकिंग’ से मैं वाकिफ ही नहीं था; अभी भी नहीं मालूम ये कैसे काम करती है, कैसे बताती है कि कौन कब कहाँ था । वाकिफ होता तो इसका भी आसान जवाब मुमकिन था कि प्रभुदयाल ने अपने जिस मातहत को ये काम सौंपा था उसने अलगर्जी दिखाई, वक्त रहते काम न किया और जब किया तब तक केस हल हो चुका था ।

- मुक्तसर, पंजाब के सागर खत्री ने मुझे बधाई दी कि बाजरिया ‘कॉनमैन’ मैं एक अरसे से पाठकों पर चढ़ी हुई जीत सिंह और अंडरवर्ल्ड की खुमारी उतारने में कामयाब रहा और खत्री साहब पढ़ते पढ़ते पूरी तरह से सुनीलियन रंग में रंगते चले गए । जमा, इस बार रमाकांत उन्हें सुनील पर हावी होता लगा, कहा कि सारा उपन्यास ही रमाकांतमय था । उन्हें उपन्यास में कहीं कोई कमी न दिखाई दी और उन्होंने सहज ही इसे मेरे बेहतरीन उपन्यासों में रखा ।

- गिरीश श्रीवास्तव पेशे से डॉक्टर हैं और उनका पत्र इंग्लिश में है । लिखते है:

I loved the novel and enjoyed it thoroughly. It is a fast
-paced, entertaining and brilliantly written novel and I loved it out and out. I really compliment you that unlike other authors, you don’t do abra-ka-dabra and bring out the culprit like a proverbial rabbit out of a magician’s hat, you leave certain subtle hints, which if grasped by the reader, he can very well judge the real culprit.

There was a small error on page 83 – you mentioned that Sunil tells the name of hotel room occupant was Anshul Khurana and on page 89 you have mentioned that Sunil was ignorant of the name of the occupant.

Regarding the ‘error’, I
have to say the following to Dr Saheb:

Sunil claimed that he was informed that inside the room was a supari killer who was responsible for the old Napean Hill murder case and he submitted that he didn’t know the name of
that occupant i.e. the supari killer.

- विवेक शर्मा बस्तर, छत्तीसगढ़ में पुलिस इंस्पेक्टर हैं और कहते हैं कि ‘कॉनमैन’ ने उन्हें पूरी तरह से निराश किया । निराशा की वजह प्रत्यक्ष है कि वे खुद पुलिस अधिकारी हैं इस लिए पुलिस प्रोसीजरल को वो लेखक से – मेरे से – कहीं बेहतर समझते हैं । उनका हवाला भी
CCTV फुटेज की तरफ है जिस के जरिये पुलिस चुटकियों में कातिल की शिनाख्त कर सकती थी । दूसरा हवाला मोबाइल लोकेशन ट्रैकिंग का है और इन दोनों बिन्दुओं के बारे में अपनी कमतरी मैं पहले ही ऊपर जाहिर कर चुका हूँ ।

फिर भी उपन्यास उन्हें रोचक लगा, सुनील रमाकांत की जुगलबंदी ने उनका भरपूर मनोरंजन किया और सुनील का कियारा की बाबत कहना ‘तुम अपनी बहन की हिमायत में बोल सकते हो तो मैं भी अपनी बहन की हिमायत में बोल सकता हूँ’ उनके दिल को छू गया ।

- जबलपुर के डॉक्टर अमरेश मिश्र के खुद के शब्दों में ‘कॉनमैन’:

उपन्यास में आपने हमेशा की तरह इमानदारी बरती, हर सुराग को ज्यों का त्यों पाठकों के सामने रखा और ये हम पाठकों के लिए दिमागी खेल था कि
 हम कातिल को पकड़ कर दिखाएं । लेकिन इस बार कातिल को पकड़ना ज्यादा मुश्किल नहीं था । पेज 279 पर जो टेबल दर्ज है उसके मुताबिक या कियारा सोबती झूठ बोल रही थी या देवीना महाजन । सुनील जिस मुसीबतजदा हसीना का साथ देता है वो हमेशा बेगुनाह पायी जाती है, इस लिहाज से देवीना कातिल हो सकती थी । अब सवाल है कि देवीना और कियारा में से किसने झूठ बोला और क्यों? 9:40 पर देवीना ने लाश देखी थी और 9:50 पर कियारा ने मकतूल को मरते देखा था और उसकी डाईंग डिक्लेरेशन सुनी थी । लिहाजा दोनों सच बोलती नहीं हो सकती थीं ।

इस सन्दर्भ में मिश्र जी से मेरा निवेदन है कि देवीना ने लाश नहीं देखी थी, निष्क्रिय शरीर देखा था । तदोपरांत कियारा के आगमन पर मृतप्राय: व्यक्ति वक्ती तौर पर होश में आ गया था ।

- दिल्ली के श्याम सुंदर सोनी कहते हैं कि वे विगत 38 साल से मेरे ‘वफादार
पाठक हैं और आजकल सुनील से आश्वस्त नहीं जान पड़ते । लिखते हैं:

आप की 122 सुनिलियन पुड़िया फांकने के बाद कुछ भी नया नहीं लगता, फिर भी सुनील का इंतजार रहता है । आप बढ़िया कर रहें हैं जो सुनील पर कम लिख रहें हैं । वस्तुत: सुनील का किरदार इतना बड़ा हो चुका है कि आप की उसमें बदलाव की हिम्मत ही नहीं होती होगी । मुसीबतजदा हसीना, रमाकांत
, प्रभुदयाल सब कुछ तय है, बस एक प्लाट मिलते ही शब्द अपने आप दौड़ने लगते होंगे । माफ़ कीजियेगा पुराने पाठक सुनील सीरीज के हर एक शब्द, हर एक घटना का अंदाज़ा लगा लेते हैं ।

सोनी साहब से निवेदन है मर्डर मिस्ट्री दुनिया में कहीं भी लिखी जाये, उसका बेसिक फॉर्मेट एक ही होता है जो कभी नहीं बदलता; बदलते हैं तो किरदार और वाकयात बदलते हैं । सुनील की तक़रीबन सारी सीरीज की मोटे तौर पर एक ही कहानी है
, एक ही फॉर्मेट है । ये शिकायत की या अखरने वाली बात होती तो आप ने 122 पुड़िया फांकने तक ऐतराज न किया होता, बहुत पहले इस बाबत आपत्ति दर्ज कराई होती ।

- सुरेन्द्र मोहन पाण्डेय को ‘कॉनमैन’ की कहानी में कोई दम नहीं लगा
, न कथानक में कोई ट्विस्ट दिखाई दिया और न मैं कातिल की आइडेंटिटी छुपा कर रख सका । पेशे से पुलिस  सब इंस्पेक्टर हैं इसलिए उन्होंने पुलिसिया अंदाज़ से ही ‘कॉनमैन’ में खामियां निकली हैं:

·        
अगर कातिल रंगे हाथों गिरफ्तार नहीं होता तो कभी भी क़त्ल के केस में आला-ए-क़त्ल बरामद नहीं होता ।

·         तुषार अबरोल क़त्ल का चश्मदीद गवाह था, उसे कातिल के बारे में पुलिस को शुरुआत में ही बता देना चाहिए था ।

मेरा कहना है की ये पाण्डेय जी की खामख्याली है कि आला-ए-क़त्ल कभी घटनास्थल से बरामद नहीं होता ।

दूसरे
, होटल के जिम्मेदार अधिकारी को अगर किसी फौजदारी का आभास मिलता है तो उसका काम internal security को अलर्ट करना होता है, न कि की-होल से वारदात का नज़ारा करने लगना होता है । पाण्डेय जी हॉस्पिटैलिटी बिज़नेस तो नहीं समझते, होटल  कर्मचारी ऐसी हरकत करता है, वो फ़ौरन बर्खास्तगी का अधिकारी होता है ।

- उपरोक्त के विपरीत बदायूं के मोहम्मद इमरान अंसारी तो यही जान कर खुश हो गए कि उपन्यास सुनील सीरीज का था । लिहाजा, बकौल खुद उनके ‘कॉनमैन’ नापसंद आने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था, सुनील के नावल की तमाम खूबियाँ ‘कॉनमैन’ में मौजूद थीं । प्लाट एकदम नया था, सोशल मीडिया के माध्यम से ठगी के व्यापक जाल पर बुने इस नावल में सुनील
, रमाकांत, प्रभूदयाल, रेणु, सभी किरदार अपने रंग में दिखे । नावल के सस्पेंस ने भी अंत तक बांधे रखा, लब्बोलुआब ये कि ‘कॉनमैन’ फुल पैसा वसूल और मनोरंजक था ।

- धुले के अनिल कुमार सोनवने को सुनील से सालों बाद मुलाक़ात ऐसी लगी जैसे ज़िन्दगी में रिजक की जद्दोजहद के दौरान हज़ारों मील दूर रह रहा दोस्त अचानक मिल जाये और ख़ुशी का ठिकाना न रहे । कहते है कि आधुनिक परिवेश में आधुनिक तरीके का साइबर क्राइम का नयापन मंत्रमुग्ध कर देने वाला था, सुनील सीरीज के स्थापित मापदंडों के हिसाब से उपन्यास ऐन सुनीलियन बन पड़ा है । एक शिकायत उन्हें हुई है कि असल कातिल का अंदाजा बहुत जल्द और बहुत आसानी से हो जाता है ।

शिकायत के खाते में पेज 59 से 64 तक का रमाकांत की महफ़िल वाला प्रसंग उन्हें बेमानी – रिपीट
, बेमानी – लगा ।

अनिल जी की जानकारी के लिए अर्ज है की यही प्रसंग मेरे तमाम पाठकों को सब से ज्यादा पसंद आया । बहरहाल मूंडे मुंडे मतिभिन्न: ।

- नीलेश पवार पिपरिया, मध्यप्रदेश में आबकारी निरीक्षक हैं, ‘कॉनमैन’ तुरंत पढने की उत्कंठा में दफ्तर से छुट्टी कर के 160 किलोमीटर का सफ़र तय कर के वो ये किताब लाये । सुनील की वापसी उन्हें जोरदार लगी । खुद उनके शब्दों में:

आपने सुनील का वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जो आधुनिकीकरण किया, वो कमाल है और नावल की थीम जो आपने चुनी, वो वर्तमान में बहुत प्रासंगिक है । साइबर क्राइम आज एक बड़ी समस्या है । आपका ये उपन्यास सिद्ध करता है कि क्यों आप लगातार भारत के नंबर वन राइटर बने हुए हैं । उपन्यास में रमाकांत और सुनील की जुगलबंदी अपने पूरे जलाल पर नज़र आयी, उपन्यास पर आप की मेहनत साफ़ झलकती है, एकदम चाकचौबंद उपन्यास है जिस में कातिल का अंदाज़ा लगा पाना मुश्किल है । आप की तार्किक क्षमता काबिलेतारीफ है ।

- बरेली के दयानिधि वत्स ने हमेशा की तरह ‘कॉनमैन’ एक ही सिटींग में पढ़ा । कहते हैं कि वे हमेशा ही किसी भी कृति को खुर्दबीन से नहीं देखते बल्कि मनोरंजन की दृष्टि से देखते हैं और पढ़ते हैं । लिहाजा मेरे किसी भी उपन्यास में उन्हें कभी कोई कमी नहीं दिखती । लेकिन
, कहते हैं कि, प्रस्तुत उपन्यास अपवाद रहा, इस लिहाज से कि आजकल हर होटल के हर फ्लोर पर CCTV कैमरे लगे होते हैं जिन के चलते कातिल का सुराग न लग पाना थोड़ा  अटपटा लगा । उपन्यास के कवर से उन्हें विशेष शिकायत हुई ।

मेरा वत्स जी से निवेदन है कि कवर वाकेई बहुत मामूली था लेकिन मेरा उस पर कोई जोर नहीं
, नए मिजाज के प्रकाशक हैं, किसी की नहीं सुनते ।

CCTV
कैमरों के चित्रण में मेरे से लापरवाही हुई है जिसे मैं ऊपर कहीं पहले ही कबूल कर चुका हूँ । कॉरीडोर का कैमरा याद न आया वर्ना मैं लिख सकता था कि कैमरा बिगड़ा हुआ था या बिगाड़ दिया गया हुआ था ।

- दिल्ली के अविनाश शुक्ल हिंदी के अध्यापक हैं और 14 साल की उम्र से मेरे नियमित पाठक हैं । सुनील सीरीज उन्हें विशेष प्रिय है इसलिए चार साल बाद ‘कॉनमैन’ मिला तो उन्हें ऐसा लगा जैसे प्यासे रेगिस्तान को ओस के कुछ कतरे नसीब हुए हों । कहते हैं कि शायद प्यास ज्यादा थी या साकी ने कंजूसी की, ‘कॉनमैन’ पढ़ कर ऐसा लगा जैसे अभी तो शुरू हुआ था और अभी ख़त्म । (320 पृष्ठ !) इतने अच्छे प्लाट को इतनी जल्दी समेत दिया गया । ‘कॉनमैन’ नाम से उन्हें उम्मीद हुई थी कि एक से एक मजेदार ठगी के किस्से पढ़ने को मिलेंगे लेकिन बस ऊंट के मुंह में जीरा मिला ।

मेरा निवेदन है कि शुक्ल जी की शिकायत नाजायज है । वो मेरे पुराने, नियमित पाठक हैं तो उन्हें मालूम होना चाहिए कि सुनील सीरीज के नावलों का फॉर्मेट मर्डर मिस्ट्री वाला होता है, उसमें ठगी बुनियाद हो सकती है मुख्य विषय नहीं ।

दूसरे, पॉकेट बुक्स के धंधे में कीमत के मुताबिक उपन्यास का कलेवर पूर्वनिर्धारित होता है – मसलन 175/- रूपये कीमत में 320 से ज्यादा पेज नहीं छापे जा सकते, अगर पेज बढ़ेंगे तो कीमत बढ़ेगी, जोकि वांछित नहीं । लिहाजा उपन्यास के कलेवर को पूर्वनिर्धारित पृष्ठ संख्या में समेटना जरूरी होता है । जमा
, मैं नहीं समझता कि उपन्यास को समेटने में कोई जल्दबाजी हुई है ।

- गोरखपुर के मनीष पाण्डेय ने ‘कॉनमैन’ को ‘चाँद का टुकड़ा
नहीं ‘पूरा चाँद करार दिया और कहा कि चाँद से भला किसे शिकायत होती है! फिर भी उनके खयाल से सुनील को लिखने के मेरे तरीके में फर्क आया है, सुनील पहले के मुकाबले में ज्यादा संजीदा हो गया है । (वजह शायद ये हो कि मैं पहले के मुकाबले में ज्यादा संजीदा हो गया हूँ ।)

दूसरी
, हैरान करने वाली, बात उन्हों ने ये लिखी की ‘कॉनमैन’ उन्हें ‘घटना-प्रधान’ उपन्यास न लगा । गलतियों के खाते में उन्होंने एक बहुत ही बचकानी बात लिखी कि पेज 70 के आखिर से पहले वाली लाइन में ‘पेजर’ का जिक्र है जब कि पेजर का चलन कब का ख़तम हो चुका है । पाण्डेय जी की ज्ञात हो कि ‘पेज करने’ का ‘पेजर’ से कोई रिश्ता-वास्ता नहीं होता । पेज करना किसी को तलाश करने को कहते हैं, होटल में - या किसी और सार्वजानिक स्थल पर – किसी को तलाश करना होता है तो bellboy उसका नाम लिखा बोर्ड लेकर लॉबी में घूमता है, फिर कोई खुद ही बताता है कि बोर्ड पर लिखे नाम वाला व्यक्ति वो था । इस प्रक्रिया को ‘पेज करना कहते हैं, इस में ‘पेजर कहाँ से दाखिल हो गया!

- लुधियाना के विपिन शर्मा कहते हैं के अकेले ‘लेखकीय’ को पढ़ कर ही – जिसे की उन्होंने उपन्यास हाथ में आते ही पढ़ा - ‘पैसा वसूल’ भावना मन में जाग्रित हो गयी, पूरा उपन्यास तो उन्होंने अगले दिन ऑफिस से छुट्टी कर के पढ़ा । उनके अपने शब्दों में:

सर
, आप महान हैं, आप की ये रचना भी आपकी तरह महान है । ठगी के एकदम नए तरीके को आप ने अपनी कहानी के लिए आधार बना कर बेहतरीन मर्डर मिस्ट्री प्रस्तुत की है । 100 बटा 100 नम्बर वाली शानदार कहानी पेश की है । एक अरसे बाद सुनील और रमाकांत से मुलाक़ात हुई । सुना था सब्र का फल मीठा होता है लेकिन इतना मीठा होता है, ये ‘कॉनमैन’ पढ़ कर ही जाना ।

- जबलपुर के आशीष पटेल कहते हैं कि ‘कॉनमैन’ मिली तो पहले दो दिन तो वो उसे निहारते ही रहे – यूँ जैसे कोई नयी नवेली दुल्हन को निहारता है । उपन्यास पढना शुरू किया तो उसने ऐसा समां बाँधा कि पता ही न चला कि कब सुबह होने को आई । उपन्यास समाप्त होते ही उसे दोबारा पढ़ने लग गया और सहसा मुंह से निकला:

“वाह! क्या लिखा! बहुत खूब!” ऐसा बिलकुल न लगा कि 4-5 साल बाद आपने सुनील लिखा, ऐसा लगा कि अनवरत बहती नदी में पुन: स्नान किया । कैसे कर लेते हैं आप! वो भी हर बार! वही डायलाग, वही किरदार, वही अंदाजेबयां, वही हमेशा वाला सस्पेंस । वाह! वाह!”

- भोपाल के विशाल सक्सेना ने भी ‘कॉनमैन’ को पैसा वसूल उपन्यास करार दिया । कहते हैं:

चार साल बाद सुनील-रमाकांत-प्रभुदयाल से मुलाकात हुई, ऐसा लगा जैसे लम्बे चले उपवास के बाद 56 व्यंजनों से सजी थाली सामने रख दी गयी हो । हमेशा की तरह एक सिटिंग में पढ़ा जाने वाला उपन्यास । रमाकांत के मुहावरों ने मज़ा ला दिया और स्टार अट्रैक्शन रहा – ‘वंसा केका कटीनो नना मिसा पीसीनो’ । शानदार प्लाट, चुस्त और तेजरफ्तार कथानक, आदि से अंत तक बेहद रोचक । आप चाहते तो इसे बड़ी आसानी से सुधीर सीरीज का उपन्यास बना सकते थे लेकिन सिर्फ और सिर्फ एक लाइन ने इस उपन्यास को खालिस सुनील का बना दिया – “तुम अपनी बहन की हिमायत में बोल सकते हो तो मैं भी अपनी बहन की हिमायत में बोल सकता हूँ” ।

अब ऐसी नैतिकता की उम्मीद सुधीर से तो नहीं की जा सकती न!

कवर पेज ने सक्सेना साहेब को निराश किया । सस्पेंस का एलिमेंट थोडा वीक लगा । शुरुआत में सुनील-कियारा मीटिंग बहुत लम्बी खिंच गयी ।

- बनारस के राघवेन्द्र सिंह मेरे हाल ही में बने विद्वान पाठक हैं जिन्हें ‘कॉनमैन’ अमेज़न से समय पर डिलीवर नहीं हो पाया था तो उन्होंने उसकी एक प्रति अपने एक दिल्ली निवासी मित्र से मंगवाई थी जो कि उनके अनुरोध पर मेरे आवास पर उनकी प्रति पर मेरे हस्ताक्षर प्राप्त करने विशेषरूप से आया था । ऐसे ही मेहरबान और गुणग्राहक हैं राघव जी जो ‘कॉनमैन’ के बारे में कहते
  हैं:

सुनील को अपने बीच पा कर मन आह्लादित हो गया । आप ही की तरह हम जैसे कई पाठकों ने उसमें अपना वजूद तलाशा है, उसके जैसा बनने की प्रेरणा पायी है । व्यावसायिक रूप से विमल, जीता सुनील को सुपरसीड कर जाएँ पर सुनील लिखते  समय आप का तेज प्रचंड हो उठता है और ये भाव पढ़ते समय हम पाठकों तक निश्चित रूप से पहुँचता है ।

मानवीय मूल्यों एवं चरित्र के सम्प्रेषण में आपसे आगे कोई नहीं है । थोड़े से शब्दों में बड़ी से बड़ी भावनाओं का वर्णन केवल आपके द्वारा ही संभव है । रेणु का सुनील से लगाव, रमाकांत-सुनील यारी
, सुनील का हर मजलूम के किये खड़े होना, रमाकांत का यार पर सर्वस्व न्योछावर करना, ये सब आप छोटे छोटे संवादों में वैसे ही कह जाते हैं जैसे राजकपूर के बारे में कहा जाता था कि थोड़े अंगप्रदर्शन तो भी वो कलात्मक बना देते थे और वो आज के फूहड़ देह प्रदर्शन से अधिक मादक लगता था ।

- रांची के परमजीत सिंह कहते हैं कि उन्हों ने ‘संजू’ के  प्रीमिअर शो की टिकट्स मंगाई हुईं थीं लेकिन ‘कॉनमैन’ हाथ में आ गया तो उन्होंने टिकट्स पर सर्फ़ हुए 500 रूपये का नुक्सान कर के पहले ‘कॉनमैन
पढ़ा । उपन्यास के बारे में खुद उनके शब्दों में:

वाह! शानदार! कमाल! बल्ले बल्ले! उम्दा! तुसी छा गए गुरूजी । उफ्फ
, स्मार्ट टॉक का अद्भुद समां जो कोई आप जैसा किस्सागो ही बांध सकता है । हमेशा की तरह कुछ स्मार्ट टॉक को अंडरलाइन किया और बाई हार्ट याद किया जो मौका लगते ही कभी न कभी, किसी न किसी के मुंह पर दे मारूंगा । वाह! सुनील-रमाकांत-प्रभुदयाल पूरे जलाल पर । आपकी लेखनी पूरे उफान पर ।

- दिल्ली के हसन अलमास महबूब ने अपनी राय ऐसे लिखी है – तीन फूलस्केप पृष्ठों में – जैसे कि ‘कॉनमैन’ का एक चैप्टर लिखा हो । बहुत हौसलाअफजाह तरीके से उन्हों ने उपन्यास की कई बातों को - जोकि उन्हें बेतहाशा पसंद आई – अपने अंदाज़ से अपनी मेल में दोहराया । ‘कॉनमैन’ पढना उन्हें रोज़े के बाद इफ्तार की दावत जैसा आनंददायक लगा, रमजान के महीने के बाद सिगरेट के पहले कश जैसा तृप्त करने वाला लगा । हमेशा की तरह उपन्यास जानबूझ कर उन्हों ने थोड़ा थोड़ा कर के पढ़ा ताकि वो उसको पढने के आनंद को लम्बा खींच पाते । रमाकांत के शेर और मुहावरे तो उन्हें बेतहाशा पसंद आये, खास तौर से:
·         ब्रांडी का जला बियर फूंक फूंक कर पीता है ।
·         मियां बीवी पाजी तो क्या करेगा गाजी ।
·         हल की लकीरें देख कर नहीं बताया जा सकता कि खेत जोतने में कितने बैल लगे थे ।
·         पका दे अपनी बोटी को अगर कुछ शोरबा चाहे, कि खाना बर्फ में लग कर नहीं तैयार होता है ।
·         कपड़े कपड़े का है नसीब जुदा, कोई जम्फर कोई सलवार हुआ ।
·         उड़ा दे नींद आँखों की कहानी उसको कहते हैं, जला कर खाक कर डाले जनानी उसको कहते हैं ।

राहुल होरा कहते हैं कि ‘कॉनमैन’ हस्तगत होने से पहले ही उन्होंने तय कर लिया था कि आराम से दो तीन दिन में पढेंगे, पर पढ़ना शुरू करते ही उसके रस मैं ऐसे डूबे कि सर उठाने की फुर्सत न मिली, न चाहते हुए भी नेचर कॉल के लिए ब्रेक लेना पड़ा, पर फिर भी एक ही बैठक में ‘कॉनमैन’ को समाप्त किया । कहते हैं पढ़ कर मन खुश हो गया, लेकिन कातिल का अंदाजा लगाने में नाकाम रहे । उन्हें पूरा कथानक तेजरफ्तार और सस्पेंस से भरा लगा । अंत में उन्होंने मेरी तुलना डेविड धवन से की – कहा कि जैसे डेविड धवन अपने दर्शकों की नब्ज पहचानते हैं, वैसे ही मैं अपने पाठकों की नब्ज पहचानता हूँ और उनकी अपेक्षा के अनुरूप लिखता हूँ ।

- द्वारका, दिल्ली के राजसिंह को नावल में सब बढ़िया लगा, अच्छा लगा कि मैंने साइबर क्राइम्स को आधार बना कर नावल लिखा जो कि एकदम फ्रेश टॉपिक है और इसी वजह से सुनील का ये कारनामा थोड़ा ‘हट के’ है । जो शिकायत उनको हुई, वो अनोखी है और इसीलिए जिक्र के काबिल है –

नावल में बस एक ही क़त्ल हुआ, दो-तीन होते तो स्टोरी और ड्रामेटिक एंड थ्रिलिंग होती और इसी वजह से सस्पेंस थोड़ा हल्का रह गया ।

- कानपुर के अंकुर मिश्रा कहते हैं कि शाम पांच बजे वे नोएडा में थे और उसी रात की ट्रेन से उनकी कानपुर वापिसी की टिकट बुक थी
WhatsApp के जरिये उन्हें मालूम पड़ा कि ‘कॉनमैन’ करोलबाग़ के एक पुस्तक भण्डार पर उपलब्ध था । तत्काल उन्होंने रात की गाड़ी पकड़ने का कार्यक्रम रद्द किया, करोलबाग़ जाकर ‘कॉनमैन’ हासिल किया, फिर उसी रात एक मित्र के घर रुक कर किताब का आनंद लिया और अगले दिन शाम की राजधानी से कानपुर लौटे । उन्हें ‘कॉनमैन’ पढ़ कर इतनी ख़ुशी हुई कि – कहते हैं कि - बयां करना असंभव है । कथानक उन्हें बांध कर रखने वाला लगा, पात्रों का चित्रण इतना उम्दा लगा कि उपन्यास सहज ही सर्वोच्च पायदान पर विराजने का अधिकारी बन गया । कहते हैं मैंने उन्हें कम से कम दो महीने चलने वाली ट्रीट से नवाजा है क्योंकि आइन्दा दो महीनों में वे उसे दस बार तो बांचेंगे ही ।

- नवीं मुंबई के प्रकाश वाधवानी फरमाते हैं कि ‘कॉनमैन’ 25 जून की रात 12 बजे
kindle पर रिलीज़ हुआ और 12 बज कर 1 मिनट पर उनकी kindle पर उपलब्ध था । तत्काल पढना शुरू किया जो कि रात के तीन बजे ख़त्म हुआ । देर रात तक जागने कि वजह से वाधवानी साहब अगले रोज ऑफिस भी न जा सके । खामियों के खाते में उन्होंने भी CCTV  कैमराज़ की फूटिंग तो ठीक से हैंडल न किये जाने की शिकायत की और साथ में दर्ज किया कि उन्हें नहीं लगता कि किसी मर्द ने पहली बार 5 इंच हील की सैंडल पहनी हो तो वो बिना लडखड़ाये, बल्कि गिरे, दो कदम भी चल सकता हो ।

इस सन्दर्भ में वाधवानी साहब से मेरी अर्ज है कि मजबूरी में – मरता क्या न करता के आलम में – आदमी बहुत कुछ करता है, ऐसे कामों को भी कामयाबी से अंजाम देता है जो प्रत्यक्षत: विकट दिखाई देते हैं । फिर ये भी गौरतलब है कि:
·         पार्टनर को जनाना आदमी चित्रित किया गया है ।
·         हाई हील को सँभालने के लिए पहनने वाले के वजन का भी दखल होता है और पार्टनर आम मर्दों जैसा नहीं था ।
·         उसने कुछ कदम ही चलना था, यानी लिफ्ट से ग्लास डोर तक ।

- गौरव निगम लखनऊ निवासी हैं, प्रखर बुद्धि वाले व्यक्ति हैं इसलिए मेरे उपन्यास के प्रति जो कहते हैं, उसे अतिरिक्त तवज्जो के साथ पढ़ना पड़ता है । इस हद तक गहराई में जाते हैं कि ‘कातिल कौन’ में उन्होंने दो-चार-दस नहीं
, तेंतीस गलतियाँ निकाली थीं । लिहाजा शुक्र है कि ‘कॉनमैनऐसे महीन छिद्रान्वेषण में पास हो गया । ‘कॉनमैन’ को उन्होंने बहुत बढ़िया करार दिया और सुनील-रमाकांत की जोड़ी सदा की तरह सदाबहार लगी, सस्पेंस का निर्वाह बहुत उम्दा हुआ और रोचकता अंत तक बनी रही । उपन्यास की TECH-SAVVY बैकग्राउंड ने उन्हें विशेष रूप से प्रभावित किया ।
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बागवां ने आग लगा दी जब आशिआने को मेरे,
जिन पे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे ।

बड़े अफ़सोस के साथ मुझे अपने कृपालु पाठकों को सूचित करना पड़ रहा है कि मेरी आत्मकथा के बाकी दो खण्डों का प्रकाशन अनिश्चित काल के लिए टल गया है । वजह वही है जो मैंने ऊपर बयान की है । किसी मेहरबान ने ही यूँ अनापेक्षित फच्चर डाला जैसे कोई छुप कर वार करता हो । अंत पन्त तो बाकी की बायो ने छपना ही है लेकिन इस सिलसिले में नए सिरे से कोई उपक्रम करने में बहुत वक़्त लग सकता है – लग सकता है क्या, लगेगा ही । आप के लेखक ने ऐसे शख्स से खता खाई जो दोस्त होने का दम भरता था, साबित कर के दिखाया की दोस्त ही दुश्मन बनते हैं, रिश्तेदार तो शुरू से ही दुश्मन होते हैं ।

तुलसी दस जी ने कहा है:


धीरज, धर्म
, मित्र और नारी,
आपतकाल परखिये चारी ।

यही किया ।
खता खायी ।

बहरहाल दरख्वास्त है की बायो के प्रकाशन प्रोग्राम के बारे में सवाल न करें, जब कोई नया सिलसिला वजूद में आएगा, मैं खुद आप को फेस
बुक के माध्यम से सूचना दूंगा ।

दीपावली की अग्रिम शुभकामनायों सहित
,

विनीत –

एस एम पाठक