लेखन के व्यवसाय में - अगर आप इसे व्यवसाय मानें - सबसे दुरूह कार्य पुस्तक को लिखना नहीं, पुस्तक को छपवाना है । भारत में पुस्तक प्रकाशन कोई संगठित व्यवसाय नहीं जैसे कि विदेशों में है जहां कि लेखक और प्रकाशक के बीच एजेंट नाम की एक कड़ी होती है जिसकी फीस भरना लेखक कबूल करता है तो शुरूआती दौर में लेखक को प्रकाशक के मत्थे नहीं लगना पड़ता । प्रकाशक के पास स्क्रिप्ट की गुणवत्ता जांचने वाले अपने एक्सपर्ट होते हैं या जैसे विषय की वो पुस्तक हो, वैसे लेखक को - जैसा उपन्यास हो तो किसी ख्याति प्राप्त लेखक को - प्रकाशक राय देने के लिये असाइन करता है और इस काम की फीस भी भरता है । पुस्तक प्रकाशन योग्य पाई जाती है तो तभी लेखक प्रकाशक की मीटिंग जरूरी समझी जाती है और व्यावसायिक शर्तें तय की जाती हैं ।

भारत में प्रकाशक नए लेखक के साथ यूं बेरुखी से पेश आता है जैसे तमाम स्थापित लेखक मां के पेट से स्थापित हो के आये थे और कभी नए लेखक थे ही नहीं । लेखक हतोत्साहित न हो तो प्रकाशक उसकी रचना को प्रकाशित करने के लिये उसी लेखक को बोलता है कि कुछ खर्चा करे - जैसे लेखक प्रकाशक हो और प्रकाशक मार्किटिंग एजेंट हो । किसी नए लेखक में पॉकेट बुक्स के प्रकाशक को कोई सम्भावना दिखाई दे तो वो उसे घोस्ट राइटिंग का, भूत लेखन का आइडिया सरकाने लगता है । यानी रचना नए लेखक की और नाम प्रकाशक के अपने, प्रोमोट किये जा रहे मूल लेखक का जिस पर प्रकाशक का ट्रेडमार्कडक साबुन, टूथपेस्ट जैसा कब्जा होता है । लेखक अपनी रचना की इस भ्रूण हत्या के लिये तैयार हो तो उस को प्रकाशक कोई छोटा-मोटा नजराना भी टिका देता है । लेखक की निगाह मुद्रा अर्जन पर हो तो वो थोड़ी-बहुत ना-नुकर के बाद उस ब्लैकमेल जैसी पेशकश को ये सोच के मंजूर कर लेता है कि कुछ उपन्यासों के कुर्बानी के बाद ट्रेड में पता तो लग ही जायेगा कि फलां प्रकाशक के फलां मूल लेखक के पीछे वो था, फिर उसे या तो भूत लेखन की ही तगड़ी, ज्यादा कमाई वाली ऑफर मिल जायेगी या उसकी लेखन क्षमता से प्रभावित कोई प्रकाशक उस को उसके खुद के नाम से छापने को तैयार हो जाएगा ।

आजकल मार्केट में इंग्लिश में लिखने वाले देसी लेखकों की बाढ आई हुई है, जिनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो अंग्रेजी भी ऊटपटांग सी ही लिखते हैं लेकिन चेतन भगत के सौजन्य से आजकल वैसी चलताऊ भाषा की करेक्ट-परफेक्ट इंग्लिश के मुकाबले में बेहतर शिनाख्त बन गई है, यानी हिंगलिश इंग्लिश पर हावी हो रही है । जाहिर है कि कोई सुबुद्ध नवलेखक एन सटीक आंगल भाषा में उपन्यास लिखकर प्रकाशक के पास लेकर जाए तो प्रकाशक उसके शुद्ध भाषाज्ञान की तारीफ करने की जगह उसको राय देता है कि वो उस भाषा में ‘सुधार’ करे, उसे चलताऊ हिंगलिश बना कर लाए ।

ऐसे नवलेखक अमूमन अच्छे घरों के अच्छी हैसियत वाले रोशन चिराग होते हैं जिनके माता पिता के लिये औलाद के शौक पर तीस-पैंतीस हजार रुपया खर्च कर देना कोई बड़ी बात नहीं होती । आखिर फैंसी खिलौने कौनसे सस्ते आते हैं ! एंड्रोइड मार्का मोबाइल कौनसे सस्ते आते हैं ! डिजाइनर्स जींस कौनसी सस्ती आती हैं ! बिटिया रानी - अत्याधुनिक, फिल्मी बिटिया रानी - मचल कर कहती है ‘पापा मैंने नॉवल लिखा है, छपवा कर दो ।’ पापा सहर्ष प्रकाशक को इस मद में तीस-पैंतीस हजार रूपये की कंट्रीब्यूशन के लिये तैयार हो जाता है । यहां ये बात गौरतलब है कि जिसे प्रकाशक नए लेखक की ‘पार्शल कंट्रीब्यूशन’ बताता है, सौ रूपये कीमत की एक हजार पुस्तकें छापने की लागत उससे कम होती है । यानी ‘पार्शल कंट्रीब्यूशन’ नाम पर प्रकाशक स्क्रिप्ट के साथ - उसका तो कुछ देना है ही नहीं - पुस्तक प्रकाशन की अपनी लागत से ज्यादा पहले ही वसूल कर लेता है और यूं बिना कुछ किये, पुस्तक प्रकाशन की दिशा में बिना अपनी उंगली भी हिलाए, वो मुनाफा भी कमा चुका होता है और अभी अहसान नए लेखक पर उसका है । यूं छपी एक हजार किताब में से तीन सौ वो लेखक को थमा देता है और बाकी सात सौ - जो उसे बिल्कुल मुफ्त में हासिल हुई - खुद बेच खाता है । यानी प्रकाशक के दोनों हाथों में लड्डू ।

लेखक अपनी रचना - बमय रंगदार तस्वीर और लेखक परिचय - छपी देखकर फूला नहीं समाता और महीनों उसको बगल में लेकर घूमता है कि देखो लोगो, मैं छप गया । मैं अब लेखक हूं । आई गोट पब्लिश्ड । तीन सौ कापियां जो उसके कब्जे में होती हैं वो सहर्ष दोस्तों को, रिश्तेदारों को ‘सप्रेम भेंट’ करता है । उन्हें बेच के पैसे खड़े करना तो उसके बस का नहीं ! जमा, ये काम वो करना ही नहीं चाहता । उसने तो अपनी सिकंदर जैसी अचीवमेंट फिर फिर और फिर वाकिफकारों में पेश करना है, दीवाली की मिठाई की तरह बांटना है, पैसे की उसे क्या परवाह है उसके पिता के पास बोरों में भरा है ।

उपरोक्त सरीखे अति उत्साहित लेखकों में आधे से अधिक वन-टाइम-ऑथर होते हैं । जो कुछ उन्हें आता होता है, उसे वो अपनी पहली पुस्तक में उतार चुके होते हैं । इसलिये वो पहली किताब उनकी आखिरी भी साबित होती है । शौक पूरा हो गया न ! शौक की कहीं कोई कीमत होती है ! कितना कर्णप्रिय लगता है सुनना जब मां बाप रिश्तेदारों को गर्व से बताते हैं हमारे मिकी, डिकी, रोकी ने नॉवल लिखा है - और वो भी इंग्लिश में, राष्ट्र भाषा में नहीं ।

बाकी जो बचते हैं उन को हम अपने लेखन के मामले में संजीदा मानें तो वस्तुत: पहला छप पाने से पहले दूसरा वो लिख भी चुके हैं या लिख रहे होते हैं । उन के रसूख से उन की पहली रचना की रिव्यू छप जाए या संयोगवश वैसे ही कहीं छप जाए तो वो छोटा-मोटा चर्चा उनके काम आता है जिसे वो किसी दूसरे प्रकाशक को अप्रोच करने के मामले में जैक बनाते हैं । किसी दूसरे पब्लिशर को लेखक का लेखन जंच जाए, आगे वो छापने को तैयार हो जाए तो लेखक को रायल्टी भले ही तब भी न मिले, वो पल्ले से पैसे खर्च करने की जिम्मेदारी से - बल्कि लानत से - जरूर बच जाएगा । फिर अक्ल और जुगत का कोई प्रोपर तालमेल बैठ जाए तो हो सकता है आइन्दा दिनों कोई ऐसा सौ में एक चेतन भगत के समक्ष ही जा खड़ा हो, अमीश त्रिपाठी के लिये चैलेन्ज बन जाए ।

लेकिन वो सब डिस्टेंट ड्रीम है । असलियत यही है कि बहुत कठिन है डगर प्रकाशित होने वाला लेखक बनने की । सीधे सीधे लेखक बनने के, पुस्तक प्रकाशित कराने के, तीन ही तरीके हैं :

1.    धक्के खाते रहो और इंतजार करो कभी घूरे के भी दिन फिरने के ।

2.    भूत लेखक बनना कबूल करो ।

3.    पल्ले से पैसा खर्च के पुस्तक छपवाओ ।

लेकिन भला हो मॉडर्न टैक्नोलोजी का, इन्टरनेट की बेतहाशा तरक्की का कि अब एक चौथा तरीका भी वजूद में आ गया है जिसका नाम है - ई-बुक्स ।

ई-बुक्स पेपरलैस पुस्तक प्रकाशन का तेजी से सारे संसार में लोकप्रिय होता जा रहा जरिया है जिसके सदके लेखक प्रकाशक का, उसकी धौंस पट्टी का, उसकी ब्लैकमेल का मोहताज नहीं । नॉवल लिखो, इन्टरनेट पर पोस्ट कर दो, और फिर फिंगर्स क्रोस्ड अच्छी रिस्पोंस का इंतजार करो जो आपने अच्छा लिखा है तो अच्छी होगी ही । ई-बुक्स के तौर पर आपकी रचना मकबूल हो जाए, चर्चा का विषय बन जाए तो कोई बड़ी बात नहीं कि वही प्रकाशक जो आपको छापने के लिये पैसा मांगता था, आपको पैसा देने की पेशकश करने पहुंच जाए ।

यहां ये बात भी गौरतलब है कि नए लेखक से खर्चा वसूल कर के किताब छापने वाला प्रकाशक कभी हजार प्रतियों से ज्यादा नहीं छापता, प्रिंटिंग का इंतजाम ऐसा है कि कम छापने पर भी एक कागज को छोड़ कर तमाम खर्चे हजार वाले ही होते हैं । हजार किताबें आप के उपहारस्वरूप बांटे या प्रकाशक के बेचे कितने लोगों तक पहुंच बना लेंगीं । इतने बड़े हिन्दोस्तान में हजार छपी किताब की और उस के लेखक की किसी को भनक भी नहीं लगेगी । इसके विपरीत ई-बुक्स का संसार अथाह है, अगाध है, सारी दुनिया में किसी भी कोने में बाजरिया ई-बुक्स आपका रीडर पैदा हो सकता है, आखिर इंग्लिश सारी दुनिया में पढ़े जाने वाली भाषा है । पॉपुलेरिटी के ग्राफ में भले ही वो चायनीज और स्पैनिश के बाद तीसरे नम्बर पर आती है (हिंदी पांचवें नम्बर पर) लेकिन उसका पाठक तो दुनिया के हर कोने में है । ई-बुक्स के जरिये ही ये करतब हो सकता है कि बतौर लेखक कोई आपको साउथ अफ्रीका में जानता है, फिनलैंड में जानता है, जापान में जानता है जब कि हार्ड कॉपी के सदके कोई बड़ी बात नहीं कि आप का पड़ोसी आप को न जानता हो ।

पुस्तक-संसार अद्वितीय है, अपरम्पार है, इसका कोई सानी नहीं, इसके प्रचार प्रसार में ई-बुक्स का रोल चमत्कारी है इसलिये प्रकाशक की रोजमर्रा की धांधली और दादागिरी से आजिज आया, मुखाफलत का तमन्नाई आपका खादिम भी ई-बुक्स की राह का राही बनने का मन बना रहा है और अभी से आपके सक्रिय सहयोग का तलबगार है । मेरे लिये दुआ कीजिये कि अड़तालीस साल निरंतर कलम घिसने के बाद बाजरिया ई-बुक्स अब मैं प्रकाशक के, भाई प्रकाशक के, अंगूठे के नीचे से निकल पाऊं ।

बहुत जल्द मैं अपना नया उपन्यास बतौर ई-बुक इन्टरनेट पर पोस्ट करूंगा, प्रतीक्षा कीजिये ।

विनीत