मैंने अपने पिछले वृतांत में आपको ‘जो लरे दीन के हेत’ के बारे में पाठकों की राय से अवगत कराया था । उस लेख में एक खास तारीख तक की चिट्ठियों और मेल का समावेश था । अब पेशे खिदमत है उपन्यास के बारे में कुछ और पाठकों की राय:   

दिल्ली के विशी सिन्हा की अमूल्य राय उन्हीं के शब्दों में उद्धृत है:

जो लरे दीन के हेत’ उन किताबों में से है जो पहले पन्ने से ही अपने तिलिस्म में बांध लेती है । शुरू से ही बुलेट ट्रेन जैसी रफ्तार, प्रथम भाग में – दिल्ली वाले हिस्से में – कहानी में पूरी कसावट, आगे भी बेहद तेजरफ्तार घटनाक्रम, पता ही न लगा कब शुरूआती 110 पृष्ठ पढ़ डाले ।

कहानी के दूसरे – मुंबई वाले – भाग में माइकल हुआन की एंट्री होती है, जो कि किसी तरह स्वैन नैक आइलैंड पर मरने से बच जाता है, इत्तफाकन हनुमंतराव वलसे से टकराता है, फिर एक ही समय में दो अलग अलग टीमों का विमल को निशाना बनाना और इस चक्कर में एक दूसरे की लाइन क्रॉस कर जाना । हुआन की टीम द्वारा पॉलिटिकल सभा में बम विस्फोट करवाना । विमल को कत्ल के झूठे केस में फंसा कर गिरफ्तार करवाना । भीड़ द्वारा उसे सूली पर टांग दिए जाने की कोशिश । यानी हर पंक्ति में रोमांच । पर माफी के साथ कहना चाहूंगा कि दूसरे भाग में कुछ जगहों पर आपकी पकड़ कुछ हद तक फिसलती सी लगी । डोनर को तैयार करने के लिए हुआन, गरेवाल एंड पार्टी द्वारा एक पॉलिटिकल पार्टी के नेता की सभा में बम विस्फोट कराना एक बहुत बड़ी वारदात हुई । डोनर को तैयार करने के लिए वो कम खतरे वाला काम कर सकते थे ।

गरेवाल का गोरई बीच रोड कॉटेज पर रागिनी को देख कर दिल्ली की कहानी दोहराने वाली बात में भी झोल लगा । जब लाइट जाने की वजह से अंधेरा था और जाली वाला दरवाजा बंद था तो विमल को अपना चेहरा दिखाने के लिए मोबाइल की लाइट जलानी पड़ी, फिर उसी क्षण गरेवाल ने जाली के बाहर से रागिनी को कैसे देख लिया !

आखिर में गरेवाल, कौल वगैरह की जान बख्श देना, जब कि पास्ट में मायाराम की ऐसी ही जानबख्शी की कितनी भारी कीमत चुकानी पड़ी थी ।

पर इन कमियों को नजरअंदाज करने पर कहीं ज्यादा मनोरंजन इसके तेजरफ्तार और रोमांचक घटनाक्रम ने किया ।

नावल के हाई पॉइंट्स में मैं आखिर में विमल के ये अल्फ़ाज भी शामिल करना चाहूंगा:

“क्या फायदा ऐसी जिन्दगी का जो खुदगर्जी में डूबते उतराते गुजरे, जो मैं मैं, मेरा मेरा करते गुजरे ! आदमी का बच्चा किसी के काम का नहीं तो किस काम का !”

विशी सिन्हा को उपन्यास से दो शिकायतें और भी हुई । एक तो उस में प्रूफ की बेतहाशा गलतियां उन्हें बहुत खलीं । दूसरे, वो कहते हैं कि, बैक कवर पर उपन्यास के बारे में जो चंद पंक्तियां थी, वो जरुरत से ज्यादा रिवील कर देती हैं । उन पंक्तियों में स्टोरी के बारे में हल्का फुल्का संकेत होना चाहिए, प्लाट ही उजागर हो जाए, ये वांछनीय नहीं । पाठक को पहले ही पता होना कि उपन्यास में विमल की टक्कर कौल-गरेवाल से होगी न्यायोचित नहीं । ऐसी मच-रिवीलिंग इंट्रोडक्शन ने क्यूरासिटी वाली कैट को किल करने वाला काम किया ।

आखिर में उन्होंने मुझे एक नेक राय भी दी जो मैं यहाँ पाठकों के साथ साझा कर रहा हूँ ।

बकौल उन के, विमल का लार्जर दैन लाइफ किरदार अब पाठकों को इस कदर नहीं लुभाता जैसे पहले लुभाता था । वही पुराने खलनायक, विमल को सपोर्ट करने के लिए हिमायतियों की फौज और उस की अतिशय प्रसिद्धि उसे ज्यादा मौका नहीं दे रही । मेरे को चाहिए कि मैं उसे दिल्ली-मुंबई से दूर, हिमायतियों की फौज से दूर, कहीं और स्थापित करूं । विमल नयी आइडेंटिटी के साथ, नए शहर में, वहां के लोगों के लिए अनजान दिखाई दे और अगले उपन्यास के आवरण में उसके विमल होने का कोई हिंट न मिले, यहां तक कि आवरण पर ‘विमल का विस्फोटक संसार’ वाली प्रसिद्द फ्लैश लाइन भी न हो ।

कलकत्ता के आनंद सिंह को उपन्यास का कथानक काफी कमजोर लगा । और पाठकों की तरह उपन्यास के एक जिल्द में होने से उन्हें कोई ऐतराज नहीं, बल्कि उस की बड़ी खामी उस की कहानी है जो कि, बकौल उन के है ही नहीं । उन्हें लगा जो अदृश्य शक्ति मेरे से विमल का उपन्यास लिखवाती थी, उस ने इस बार अपना करतब न दिखाया । लिहाजा मैंने उपन्यास न लिखा, कारोबारी बाध्यता के हवाले हो कर कागज काले किये, पुरानी घिसी पिटी घटनाओं को दोहराया, बासी खाना परोसा वगैरह । बकौल उन के मैं ‘राइटर्स ब्लॉक’ का शिकार हो रहा हूं, ‘जो लरे दीन के हेत’ के नाम पर मैंने जो बड़ा लड्डू दिखाया, वो मुंह में गया तो हाजमोला की गोली निकला । विमल की लेट एंट्री को उन्होंने उपन्यास का माइनस पॉइंट बताया, साथ ही ये फतवा भी जारी कर दिया कि जल्दी भी आ जाता तो कौन सा कमाल कर दिखाता ! कहानी तो कोई थी ही नहीं । आ कर करता क्या ?

उपन्यास के बारे में इतनी खराब राय रखने वाले आनंद सिंह साहब ने उस के शुरूआती 110 पृष्ठों को ‘जबरदस्त’ बताया, फिर भी मुकम्मल उपन्यास कचरा ( ? )

पंचकुला के तरुण शर्मा नौजवान हैं और वो दो रुपये रोजाना किराए पर ला कर मेरे उपन्यास पढ़ते हैं । पिछले बीस साल से यूं मेरे उपन्यास पढ़ते आ रहे हैं और उन्हें खूब पसंद करते हैं । उन्हें विमल की पिछली तिकड़ी (चैम्बूर का दाता, लाल निशान, सदा नगारा कूच का) से भारी नाउम्मीदी हुई थी इसलिए वो सीरीज के नए उपन्यास ‘जो लरे दीन के हेत’ पर दो रूपया किराया खर्चने को तैयार नहीं । उपन्यास उन्होंने नहीं पढ़ा फिर भी उन्होंने ढेर सारी सलाहें दी हैं कि मुझे आइन्दा उपन्यासों में क्या क्या तब्दीलियां लानी चाहिए । जैसे टाइपराइटर की जगह नोटबुक ने ले ली है, टेलीफोन की जगह मोबाइल ने ले ली है, वैसे ही विमल की जगह अब किसी टेक्नोलॉजी को ले लेनी चाहिए । नावल दो रुपये किराए पर ला कर पढ़ते हैं फिर भी उन्होंने ‘नए ढंग से लिखे’ मेरे नए उपन्यास पर दो सौ रुपये खर्चने की शाहाना घोषणा की है ।

जर्मनी निवासी रविकांत का ‘जो लरे दीन के हेत’ पढ़ कर दिल टूट गया, उन्हें क्लाइमेक्स बहुत बोरिंग लगा, खास तौर से नीलम और सूरज के अगवा की कोशिश ! पूछते हैं कब तक मैं उन्हें विमल की दुखती रग बना के रखूंगा ! हर बार नीलम और सूरज (सूरज भी ?) दुश्मनों के चंगुल में होते हैं । कोई नया किरदार नहीं दिखाई दिया और न ही विमल के दुश्मन उस की टक्कर के थे । काफी निराशा हुई ।

अंत में उन्होंने राय दी कि मैं विमल को संत महात्मा न बनाऊं ।

श्री गंगानगर के हरेन्द्र सिंह सन 1985 से मेरे नियमित पाठक हैं जिन की विमल के नए नावल के बारे में शायराना राय है कि, ‘बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जो चीरा तो कतरा-ए-खूं भी न निकला ।’ उन्हें सोहल ‘लार्जर दैन लाइफ’ किरदार में कहीं नजर न आया, खुद विमल उन्हें इस बार ‘दीन’ के रोल में नजर आया । उन्हें उपन्यास अच्छी शुरुआत के साथ तेजरफ्तार तो लगा लेकिन फिर पटड़ी से उतरता जान पड़ा ।

उपरोक्त के बावजूद उन्हें मेरे से कोई शिकवा नहीं क्यों कि उम्मीद करते हैं - बल्कि जानते हैं कि अगली कृति यकीनन यादगार होगी, नावल की दुनिया में ‘मोनालिसा’ होगी, ‘शोले’ होगी, ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ होगी, ‘पैंसठ लाख की डकैती’ होगी ।

सिंह साहब ने कमाल किया है कि ‘पैंसठ लाख की डकैती’ को इतनी महान कृतियों के समकक्ष रखा है ।

गोंदिया के शरदकुमार दुबे को उपन्यास पसंद नहीं आया, निराशा हाथ लगी, विमल सीरीज की साफ सुथरी चादर पर एक धब्बे की तरह लगा ‘जो लरे दीन के हेत’ । टॉप पर पहुंचा विमल जमीन पर आ गिरा । मैंने कमजोर कहानी चुनी, पैंसठ लाख की बरामदी के लिए ढेरों पृष्ठ जाया किये जिस की कोई आवश्यकता नहीं थी ।

हैरान करने वाली बात ये है कि इतनी खामियां निकालने के बावजूद दुबे जी ने उपन्यास को सौ में से अस्सी नंबर दिये हैं, अलबत्ता पुस्तकों के संसार के ज्ञानवर्धक लेखकीय को सौ में से सौ नंबर दिए ।

ज्ञानेंद्र गजरे को ‘जो लरे दीन के हेत’ अत्यंत रोचक उपन्यास लगा और गाजियाबाद के मुबारक अली की तरह ‘वाट अ मैन’ उन के मुंह से विमल के लिए नहीं, मेरे लिए निकला । तीस साल पुराने दो किरदारों की पुनर्प्रस्तुति उन्हें कमाल लगा । अलबत्ता शिकायत ये हुई कि उपन्यास का अंत बहुत जल्दबाजी में किया गया ।

शिव चेचानी की निगाह में उपन्यास अच्छा भी था, अच्छा नहीं भी था । रसमलाई की उम्मीद थी, शक्कर का पानी मिला । मुंह तो मीठा हो गया लेकिन...

राजसिंह ने ‘जो लरे दीन के हेत’ को मेरा पिछले दस साल का सब से खराब नावल करार दिया, उस को न्यूज हंट से डाउनलोड करना पैसे की बर्बादी बताया और अफसोस जताया कि उन्होंने कोई और नावल क्यों न डाउनलोड कर लिया । अपनी राय को मजबूती देने के लिए उन्होंने वही घिसा पिटा फिकरा लिखा कि सब कुछ घिसा पिटा था जिसे कि मैंने जबरदस्ती लिखा और आखिर में खास राय दी कि भविष्य में सीरीज का नाम विमल-इरफान सीरीज होना चाहिए ।

विनय कुमार पाण्डेय को भी उपन्यास पढ़ कर निराशा ही हाथ लगी अलबत्ता उन्हें इस बात से कोई शिकायत न हुई कि कथानक एक ही भाग में सम्पूर्ण था । उन्हें कहानी का अधिकतर घटनाक्रम दोहराया गया लगा । बहरहाल कहानी उन्हें अच्छी लगी, ‘65 लाख की डकैती’ के घटना क्रम को आगे बढ़ाना उन्हें उत्सुकता पैदा करने वाला लगा और लगा कि कहानी बहुत अच्छे ढंग से आगे बढाई गई थी (फिर भी निराशा !) । बकौल उन के मुझे घटनाक्रम बदल देना चाहिए था ( ! ) । उन्हें झेंडे का किरदार अच्छा लगा । उन्होंने ये नया, अछूता रहस्योद्घाटन भी किया कि मुंबई की जनता विमल को भाई - गुण्डे बदमाशों वाला भाई - मानती है और उस से डरती है, और मुंबई आज विमल के खिलाफ है । उन्हें विमल के साथ एक बड़ा हादसा घटित होने का इंतजार भी है जिस में उसकी बीवी, बच्चा, इरफान शोहाब वगैरह सब खत्म हो जायें (पाकिस्तान का हमला हो जाये !) । जमा पहले ये मुबारक राय दी कि बीवी बच्चा ख़त्म हो जायें, फिर कहा कि वो गृहस्थ की तरह जिन्दगी जीने लगे । जाहिर है पाण्डेय साहब ‘गृहस्थ’ का मतलब नहीं समझते ।

जबलपुर के शंकर शरण शिवपुरिया की उम्मीदों पर नया उपन्यास खरा न उतरा क्यों कि उपन्यास का एक बड़ा भाग लूट की रकम की बरामदी में सर्फ कर दिया गया । टैक्सी ड्राईवरों की ताकत को उन्होंने बिल्कुल न्यायोचित नहीं ठहराया क्यों कि यूं लोगों की एक बड़ी भीड़ को इकठ्ठा कर लेना उन की निगाह में संभव ही नहीं है ।

दूसरी, बड़ी शिकायत उन्हें उपन्यास के साइज़ से हुई । उन की अलमारी के शैल्फ उंचाई में छोटे हैं जिस वजह से उन्हें उपन्यास को ऊपर, नीचे और दायें से कटवाना पड़ा और यूं अतिरिक्त खर्चा करना पड़ा । अब उन की मांग है कि हार्पर कालिंस को मजबूर किया जाये कि वो उपन्यास को छोटे साइज़ में छापें ताकि वो बिना कटवाये उन के शैल्फ में आ जाये ।

जुगल किशोर अरोरा प्रवासी भारतीय है, कैनेडा में बसे हैं इसलिए मेरे उपन्यासों की हार्ड कॉपी उन्हें उपलब्ध नहीं । उन्हें ये जान कर भारी ख़ुशी हुई कि मेरी पुस्तकें अब बतौर ई-बुक भी उपलब्ध हैं और उन्होंने ‘जो लरे दीन के हेत’ को डाउनलोड कर के पढ़ा । उपन्यास उन्हें तेजरफ्तार लगा और खूब खूब पसंद आया । कहानी में कई प्लाट, सब-प्लाट थे फिर भी वो उन्हें कहीं भी पटड़ी से उतरती न लगी । शुरू से ही वो रोलर कोस्टर की रफ्तार से दौड़ती जान पड़ी । उपन्यास एक ही भाग में होना उन्हें सोने पर सुहागा सरीखा लगा ।

बीरगंज नेपाल के बीरेंद्र पटेल ने उपन्यास एक ही बैठक में पढ़ा लेकिन जब अंत पर पहुंचे तो ये जान कर उदास हो गये कि उपन्यास का कोई अगला भाग नहीं था । उन की राय में इतने तेजरफ्तार उपन्यास के तीन नहीं तो दो भाग तो होने ही चाहिए थे । बहरहाल उपन्यास उन्हें ‘वाह, वाह’ लगा ।

मैं अपने मेहरबान पाठकों का तहेदिल से शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने अपनी कीमती राय से मुझे अवगत कराया और भविष्य में भी इस नवाजिश का तलबगार हूं ।

विनीत

सुरेन्द्र मोहन पाठक