Part 1 से आगे...

पुनीत दुबे को कोलाबा कान्स्पिरेसीबेमिसाल, पूरे सौ नंबरों के काबिल लगा, बावजूद उनकी नीचे लिखी दो नाइत्तफाकियों के:

1. बकौल उनके पंगा शब्द जो एडुआर्डो और जीतसिंह के डायलॉग्स में आता है गोवा या मुंबई में इस्तेमाल नहीं होता ।

2. गाइलो जीतसिंह से मदद मांगने जाता है तो जीतसिंह उसे अपनी जाती दुश्वारियों का हवाला देकर टाल देता है, बावजूद इसके कि अतीत में गाइलो ने जीतसिंह की भरपूर मदद की थी, और कई मुसीबतें झेली थीं । ये A FRIEND IN NEED IS A FRIEND INDEED तो न हुआ ।

उपरोक्त के अलावा दुबे साहब ने नॉवेल को AWESOME, SUPERRB, FABULOUS वगैरह कई कुछ बताया ।

नागपुर के महेश मुजाल बर्फ की मूर्तियां बनाने वाले कलाकार हैं जो बकौल उन के सिर्फ मेरे उपन्यास पढ़ते हैं और उन्हें कोलाबा कान्स्पिरेसीबेहद पसंद आया है । कहते हैं उपन्यास चार उपन्यास के बराबर था जिसे महाविशेषांक बोला जाता है और कीमत 300/- रखी जाती तो भी उपन्यास सस्ता लगता ।

नागौर, राजस्थान के डॉक्टर राजेश पराशर का बाजरिया कोलाबा कान्स्पिरेसीभरपूर मनोरंजन हुआ और उन्हें उसमे लेखक के उस जलाल के दर्शन हुये जिसके लिए बकौल उनके लेखक प्रसिद्ध हैं । उपन्यास में उन्हे दो छोटी डकैती मिली जो लेखक का मसाले डालने जैसा काम था लेकिन फिर भी उम्दा था । कोर्टरूम ड्रामा की बाबत भी उनकी यही राय है । जीतसिंह की काफी वाहवाही गुंजन शाह ने छीनी । उनकी राय में डकैती एक ही होती पर बड़े कैनवस पर होती तो ज्यादा बढ़िया होता । प्रारम्भ को जीतसिंह सुष्मिता का डायलॉग पढ़ कर हैरानी होती है कि कोई लेखक इतना बढ़िया भी लिख सकता है । अन्त का जीता-सुष्मिता प्रसंग तो बहुत ही प्रभावशाली था । जीतसिंह सुष्मिता की उसका पति बनने की ऑफर कबूल कर लेता तो न उसका भला होता न सुष्मिता का । कुछ डायलॉग्स जबर्दस्त बन पड़े है जैसे:

चांद को ग्रहण लग जाये तो भी वो चांद रहता है ।

रिवेंज वो रेसेपी है जो हॉट ही सर्व होती है ।

सैल्फक्रिटिसिज्म सबक की तरह करो तो ठीक, उसे हरदम ओढ़ना बिछाना बेवकूफी होती है ।

क्या कानून है उस देश का जो ताजा विधवा के आंसू पोछने की बजाय उसे ही मुजरिम करार दे ।

डॉक्टर साहब ने उपन्यास को 100 में से 200 नंबरों से पास किया और कहा, कि उनके साथ ऐसा पहली बार हुआ कि उपन्यास समाप्त होते ही उन्होने उसे दोबारा पढ़ना शुरू कर दिया ।

 राकेश रत्नपारखी की राय में कोलाबा कान्स्पिरेसीहिन्दी क्राइम फिक्शन लेखन में एक मील का पत्थर साबित होगा । उपन्यास के अंत में सुष्मिता और जीतसिंह में हुआ संवाद झझकोर देने वाला है । अब शायद कोई न कह सके कि इस लेखक के उपन्यास साहित्य की श्रेणी में नहीं आते ।

उन्हें शिकायत भी हुई कि उपन्यास के आरंभ में जीतसिंह और सुष्मिता के बीच में हुये लंबे संवाद कुछ गतिरोध पैदा करते लगे, हालांकि शेष पूरा उपन्यास तेज रफ्तार लगा ।

बटाला पंजाब के हरपाल सिंह को कोलाबा कान्स्पिरेसीने पूरी तरह निराश किया । कहते हैं वो नहीं समझ पा रहे हैं कि जीता सुष्मिता के रोने धोने से कब बाहर आएगा । उन्हे खीज आती है जब सुष्मिता जीते को अपने हिसाब से यूज करती है । सिंह साहब की राय में जीते को बेचारगी के लेबल से छुटकारा मिलना चाहिए । हर बार उसको अंत में हारता देखकर मजा कायम नहीं रहता । उपन्यास के अंत में कातिल का खुलासा कतई मजेदार न लगा ।

गुड़गांव के हसन अलमास महबूब को कोलाबा कान्स्पिरेसी’ ‘ब्रिलियंटउपन्यास लगा, डायलॉग वाईट कार्ड लगे, डकैती थ्रिलिंग लगी और कलाईमैक्स कमाल का लगा । उन्होने उपन्यास को पूरे नंबरों से डिस्टिंक्शन के साथ पास किया । महबूब साहब कहते हैं:

आदतन, अमूमन, कमोबेश पेश्तर आप लाजवाब ही लिखते हैं मगर इस बार लाजवाब का बाप लिख दिया । वैसे तो बहुत से सेंटीमेंटल नोवेल्स आए मगर ये पहला ऐसा रहा जिसमें मैं बिना किसी की मौत पे बस अपने जैसे नाकाम आशिक की कोशिशों पर रो पड़ा ।

पलंगतोड़, बिल्डिंग तोड़, फ्लाई ओवर तोड़ नॉवेल,एकदम झक्कास,एक नंबर, अद्भुत, अविस्मरणीय, अद्वितीय, अकल्पनीय, अलौकिक, लेखनी दिलकश, दिलफरेब, दिलनशीं, दिलरुबा, दिलदार जीता । फेंटेस्टिक, फेबुलस, फाड़ू ।

जालंधर के सुभाष कनौजिया का दिल कोलाबा कान्स्पिरेसीपढ़कर बाग बाग हो गया । उन्हें कहानी जोरदार, जबर्दस्त, तेज रफ्तार और पैसा वसूल लगी । कहीं भी पकड़ कमजोर न हुई, सब कुछ वाह वाह निकला । जो बातें मुझे खटकीं वो हैं:

अनिल गजरे का महबूब फिरंगी के सामने जीतसिंह को न पहचानना, जबकि बारह घंटे पहले वो राजाराम के साथ उससे मिल चुका होता है ।

कहानी में तीन कथानक थे - एक मर्डर मिस्ट्री, दूसरा डकैती और तीसरा अंडरवर्ल्ड । सब एक ही नॉवेल में खत्म किया गया जिससे मर्डर मिस्ट्री प्रोपर मर्डर मिस्ट्री न बन पाई और थ्रिलर प्रोपर थ्रिलर न बन पाया ।

जीतसिंह और गुंजन शाह के अलावा कोई भी किरदार उभर कर नहीं आ पाया ।

डकैती बहुत ही आसानी से हो गई । आपके अपने बनाए मापदण्डों के कारण हम बहुत ज्यादा की अपेक्षा करते थे ।

पराग डिमरी की निगाह में कोलाबा कान्स्पिरेसीएक ऐसी रचना है जो की हिन्दी में छपने वाले, अमूमन मनोरंजन के लिये पढे जाने वाले उपन्यासों को एक नया आयाम प्रदान करेगी । उपन्यास में ये खूबी थी कि पढ़ने वाले को ये महसूस होता था कि उसके सामने चलचित्र चल रहा था । अलबत्ता बेहतर होता कि लंदन माफिया किसी स्थानीय मवाली की सेवाएं लेता, न कि किसी को लंदन से भेजता । उन्हे गुंजन शाह के किरदार में बहुत संभावनाएं छुपी लगीं, बहुत ज्यादा उपस्थिती न होने के बावजूद जो बहुत गहरी छाप छोड़ जाता है ।

रमाकांत मिश्र ने कोलाबा कान्स्पिरेसीको अद्भुत, अनुपम, अतुल्य, अमूल्य, अतुल्य रचना करार दिया । विशेषणों के इतने फुंदने लगाने के बाद भी कहा कि उनके पास रचना की प्रशंशा के लिए शब्द नहीं हैं । एक ही बैठक में बाध्यकारी रूप से पठनीय इस उपन्यास को उन्होंने मेरी अब तक की सर्वश्रेष्ठ रचना बताया ।

मिश्र जी की राय में हिन्दी जासूसी उपन्यासों के क्षेत्र में कोलाबा कान्स्पिरेसीनए मानक खड़े करता है, और निश्चित रूप से हिन्दी में जासूसी उपन्यास लिखने वाले रचनाकारों को इस उपन्यास को मानक ग्रंथ के रूप में पढ़ना चाहिए ।

रिषी ग्रोवर को कोलाबा कान्स्पिरेसीऐसा थ्रिलर लगा जिसमें एक परफेक्ट मसाला मूवी का हर गुण मौजूद था और जिसका क्लाइमैक्स शानदार और दिल को छू जाने वाला था । अलबत्ता रॉबरी अगर एक ही होती और महबूब फिरंगी के साथ ज्यादा एक्शन होता तो उपन्यास ज्यादा थ्रिलिंग बन पाता ।

ग्रोवर साहब की नजर में जीता कम से कम इस बार तो जीता ।

जगदीप सिंह रावत को प्रकाशन और प्रकाशक दोनों दमदार लगे । रावत साहब ने उपन्यास को 100 में से सौ नंबर दिये । कातिल का अंदाजा वो आखिर तक न लगा पाये । जब कातिल का खुलासा हुआ तो उन्हे बिलकुल नेचुरल लगा । अलबत्ता एण्ड में ये बात उन्हे चुभी कि जीते ने सुष्मिता को क्यों ठुकरा दिया । आखिर वो बाहैसियत, दौलतमंद बन जाने के बाद भी जीते से शादी करने को तैयार थी तो क्या जीते को उसे कबूल नहीं कर लेना चाहिए था ।

नागपुर के प्रशांत बोरकर को उपन्यास कमाल का लगा और उन्होंने इसे एक ही बैठक में पढ़ा । उन को उपन्यास एक माइंड ब्लोइंगलगा । एण्ड में जीतसिंह ने अपनी सेल्फ रिस्पेक्ट और डिग्निटी को बरकरार रखा । जीतसिंह और गाइलों कि निस्वार्थ दोस्ती ने भी उन्हे बहुत प्रभावित किया । मिश्री का किरदार भी बोरकर साहब को खूब पसंद आया लेकिन उनके ख्याल से जीतसिंह को एक बड़ी रकम उसे बिना मांगे देनी चाहिए थी और इसरार करना चाहिए था कि वो वेश्यावृति छोड़ दे । गुंजन शाह उन्हें मजेदार और मजाकिया लगा ।

मनु पंधेर को नॉवेल खूब पसंद आया लेकिन उनकी निगाह में उसका एक पार्ट और होना चाहिए था । पेज 325 के बाद कहानी बुलेट की रफ्तार से चलती है और वो 406 पर ही नहीं खत्म हो जानी चाहिए थी । उपन्यास में लेखकीयन होना उन्हे ऐसा लगा जैसे उन्हे ब्लैक लेबल सोडे और बर्फ के बिना सर्व की गई हो । गुंजन शाह उन्हें भविष्य में भी दिखाई देता रहे इस बात की उन्होने खास सिफारिश की ।

प्रभात खबरके संवाददाता आनंद कुमार सिंह ने भी उपन्यास हाथ में आते ही एक ही बैठक में पढ़ा और वो उन्हे धुआंधार, फास्ट और बेहद रोचक लगा । कोर्टरूम ड्रामा ने उन्हे विशेष रूप से प्रभावित किया । अलबत्ता जीतसिंह की डकैती वाले दोनों प्रसंग उन्हें कमजोर और कुछ ज्यादा ही संक्षिप्त लगे । उनके ख्याल से उपन्यास में विमल भी होना चाहिए था ताकि वो मल्टीस्टारर बन जाता ।

दिल्ली के इमरान अंसारी को कोलाबा कान्स्पिरेसीखूब पसंद आया, जीतसिंह हमेशा की तरह इस बार भी शानदार लगा । उपन्यास में उन्होने कई भावुक प्रसंग पाये जिन्होंने ने उनका मन मोह लिया । उपन्यास की मुंबइया, टपोरी भाषा उन्हे विशेष रूप से पसंद आई जो उपन्यास पढ़ चुकने के कई दिन बाद तक उनकी जुबान पर चढ़ी रही । अलबत्ता उन्हें शिकायत है कि उपन्यास की मर्डर मिस्ट्री वो संस्पेंस न पैदा कर पायी जो मेरी अन्य मर्डर मिस्ट्रीज में होता है । एक बाउंसर का सिर्फ कर्ज की वसूली के लिए कत्ल करना उनके गले न उतरा ।

नेपाल के अमन खान ने कोलाबा कान्स्पिरेसीपढ़ा तो बस उसमें ही खो गए । पढ़ कर यकीन हो गया कि आप हो, आप के मुकाबले कोई नहीं । बकौल उनके, एक जीता ही ऐसा किरदार है जिसके कारनामे पढ़ने पर ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की सांस नीचे रह जाती है । जीते की किस्मत का कोई भरोसा नहीं, उसके साथ कभी भी, कुछ भी हो सकता है, हर वक्त यही डर लगा रहता है कि उसके साथ कुछ बुरा न हो जाये ।

अमन साहब को भी लगा कि उपन्यास का दूसरा पार्ट होना चाहिए था । मिश्री का प्यार देखकर उनकी आंखें छलक गईं । कोर्ट की जिरहबाजी में खास मजा आया ।

गुंजन शाह उन्हें सुष्मिता की मजबूरी का फायदा उठाता जान पड़ा और ये बात उन्हें अखरी क्योंकि वो मेरे हर किरदार से अपनों की तरह प्यार करते हैं ।

रायगढ़ के आनंद पाण्डेय को, जो कि जिंदल स्टील एण्ड पावर लिमिटेड में डिप्टी मैनेजर हैं, ‘कोलाबा कान्स्पिरेसीतेज रफ्तार, रोमांचक, पैसा वसूल लगा और उन्होने उसे 100% मार्क दिये । कोर्ट रूम प्रसंग उन्हें कदरन छोटा लगा लेकिन अच्छा लगा । डायलॉग्स - खास तौर से जीतसिंह और सुष्मिता के बीच के -  उन्हें खासतौर से पसंद आए । मिस्ट्री एलीमेंट कमजोर लगा और रहस्योद्घाटन धमाकेदार न लगा । हर किसी की तरह लेखकीयको उन्होने भी मिस किया ।

शाहदरा दिल्ली के नारायण सिंह को ‘कोलाबा कान्स्पिरेसी’ बहुत अच्छा लगा । बकौल उनके, वो जितनी तेजी से शुरू हुआ, उससे दुगुनी तेजी से समाप्त हुआ । उपन्यास 406 पृष्ठ का था फिर भी कहते हैं कि जीतसिंह से मुलाकात में पूरी तरह से रस आया भी नहीं था कि उपन्यास समाप्त हो गया । यानी उपन्यास ने भूख शांत करने की जगह भूख और भड़का दी ।

लेखकीयके अभाव की वजह से उन्हे उपन्यास ऐसे शानदार भोजन की थाली जैसा लगा जिसमें मीठा नहीं था । मेरे उपन्यास में लेखकीयन हो तो उन्हे लगता है कि वो अधूरा है ।

जीतसिंह और गाइलों के शुरुआती संवाद उन्हें बहुत अच्छे लगे । जिस बारीकी से उपन्यास शुरू हुआ था, उसी बारीकी से खत्म होना चाहिए था पर अंत जिस तेजी से हुआ उसे देखकर अवाक रह जाना पड़ा, यहां तक कि कोर्टरूम का इम्पोर्टेन्ट ट्रायल भी आनन फानन खत्म हो गया । पूरे उपन्यास में खास मुंबइया लहजे ने उनका बेहतरीन मनोरंजन किया ।

उस प्रसंग ने नारायण सिंह को बहुत जज्बाती किया जिसमे जीतसिंह ने सारा पैसा मिश्री के सामने रख दिया । ऐसा ही शख्स था जीतसिंह जो अपने ऊपर किए गए छोटे से एहसान के बदले में अपनी जान तक हारने को तैयार था । ऐसे बेहतरीन किरदार को उन्होने अपने सम्मान से नवाजा है ।

मैं अपने मेहरबान पाठकों का तहेदिल से शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने अपनी कीमती राय से मुझे अवगत कराया और भविष्य में भी इस नवाजिश का तलबगार हूं ।

विनीत

सुरेन्द्र मोहन पाठक

28 मई 2014