Interview
April 20, 2017सुरेन्द्र मोहन पाठक से एक साक्षात्कारः
1. आप ने लिखना कैसे शुरू किया, यानी शौक़िया या पैसों की ख़ातिर?
# लिखना शौकिया शुरू किया। पैसे का तो सवाल ही नहीं था। जिस दौर में मैंने लिखना शुरू किया था, उस में तो नामी लेखकों को भी कोई मानीखेज़ उजरत नहीं मिलती थी। कोई भी लेखक लेखन से घर बार चला पाने की स्थिति में तब नहीं होता था। इसी वजह से ख़ुद मैंने 34 साल सरकारी नौकरी की।
2. क्या आप आरम्भ में ही अपने उपन्यास का कथानक निर्धारित कर लेते हैं या कहानी को आगे बढ़ाते जाने के उपरान्त आये घटनाक्रम में बदलाव या ट्विस्ट और टर्न आपको आंदोलित/आश्चर्यचकित करते हैं?
# कथानक पहले निर्धारित करना पड़ता है। जो लिखना है जब उसकी ख़बर ही नहीं तो नॉवल कैसे वजूद में आएगा। रोटी बनानी हो तो पहले आटा तो गूँधना पड़ता है न! वस्तुतः लेखक की सारी मेहनत ये निर्धारित करने में ही लगती है कि उसकी लिखी कहानी ने क्या रूख अख़्तियार करना है और क्या अंतिम रूप लेना है। कहने का तात्पर्य ये है कि मेरी टाइप के उपन्यास लेखन में execution के मुक़ाबले में planning का महत्व ज़्यादा है। बहुत सी बातें होती हैं जो लेखक को कहानी के दौरान सूझती हैं लेकिन वो ऐसे नहीं होतीं की मूल कथा का हुलिया ही बदल दें। यानी तवे पर पड़ी रोटी पराँठा तो बन सकती है, पूरी नहीं बन सकती।
3. आपने हमेशा खुद को कारोबारी लेखक बताया। क्या कभी ये तगमा आपको नागवार गुजरा?
# इस में कोई दो राय नहीं हो सकती कि मैं एक कारोबारी लेखक हूँ। और स्पष्ट शब्दों में कहा जाये तो मैं लेखक हूँ ही नहीं; मैं एक व्यापारी हूँ जिस का व्यापार लिखना है। मैं साहित्य स्रजन नहीं करता, पाठकों की मनभावनी प्रॉडक्ट बनाता हूँ। इस लिहाज़ से कथित साहित्यिक लेखकों के मुक़ाबले में मेरी ज़िम्मेदारी ज़्यादा है, उनकी तरह मैं ये रूख अख़्तियार नहीं कर सकता कि मैंने तो जो लिखना था लिख दिया, आगे पसंद आना या न आना आप की मर्ज़ी पर निर्भर है। मेरा लेखन branded product जैसा है, बाटा का जूता है, जिसने एक बार नहीं, हर बार पाठकों की उम्मीदों पर खरा उतर कर दिखाना है। यही लेखन की दुनिया में मेरी सफल, असाधारण रूप से लम्बी इनिंग (57 saal) का राज है।
4. सुनील जैसे खोजी पत्रकार की आपने रचना की। क्या उसके करीब भी किसी वास्तविक जीवन के पत्रकार को पाया?
# आज मैं कई नामचीन पत्रकारों से वाक़िफ़ हूँ, प्रेस क्लब ऑफ इंडिया का पुराना मेम्बर होने की वजह से उन में रोज का उठना बैठना है लेकिन जब सन 1963 में मैंने एक खोजी पत्रकार को हीरो बना कर अपना पहला नॉवल 'पुराने गुनाह नये गुनहगार' लिखा था तब मैं न किसी पत्रकार से वाक़िफ़ था और न प्रामाणिक रूप से मुझे मालूम था कि पत्रकार कैसे फ़ंक्शन करता था। 'खोजी पत्रकार' टर्म से तो तब कोई वाक़िफ़ ही नहीं था क्योंकि ये टर्म तो सत्तर के दशक में वजूद में आयी थी। ये मेरी ख़ुशक़िस्मती थी और अनोखा इत्तफ़ाक़ था कि 'खोजी पत्रकार' यथार्थ से पहले मेरी परिकल्पना में अस्तित्व में आया।
5. कहानी को आप प्राथमिकता देते हैं या उसे कहने के अंदाज को? क्या कहानी से समझौता उसे कहने के अंदाज के कारण किया जा सकता है?
# मेरी क़िस्म के लेखन में हर बात अहम् है लेकिन अहमतरीन कहानी का ताना बाना है, बाक़ी सब कुछ गौण है। कमज़ोर कहानी को लेखक की कोई भी बाज़ीगरी कवर नहीं कर सकती। कहानी उपन्यास की बुनियाद है, जब बुनियाद ही कमज़ोर होगी तो इमारत बुलंद कैसे होगी! लेखकीय फूँदने कहानी को सज़ा सकते हैं, कहानी की कमज़ोरी और कमियों पर पर्दा नहीं डाल सकते - ऐन वैसे ही जैसे चाँदी का वर्क मिठाई को सज़ा सकता है उसकी गुणवत्ता की इकलौती वजह नहीं बन सकता।
6. हमने पढ़ा है विदेश में किताबों के पीछे काफी शोध होते हैं, क्या आप भी ऐसा करते हैं। यदि हां तो किस किस्म का शोध करते हैं?
# शोध से शायद आप का मतलब तैयारी से है। तैयारी तो कोई भी रचनात्मक कार्य हो उसके लिए ज़रूरी होती है। मैं कोई rocket science से सम्बंधित किताब तो लिखता नहीं जिस के लिए कि शोध ज़रूरी हो। मैं अपने ख़ुद के, पूर्वस्थापित दायरे में रह कर भी बहुत कुछ लिख सकता हूँ - लिखता हूँ। कोई अतिरिक्त जानकारी दरकार होती है तो वो छोटी-मोटी ही होती है जिसे मैं बावक़्तेज़रूरत हासिल कर लेता हूँ। जिस विषय की व्यापक जानकारी आवश्यक हो, उसे मैं हाथ ही नहीं लगता।
7. क्या आप अपनी पुस्तक पर आये प्रशंसात्मक टिप्पणी या समीक्षा के द्वारा प्रोत्साहित होते हैं और आलोचनात्मक टिपण्णी एवं बुरी समीक्षाओं के द्वारा हतोत्साहित होते हैं।
# प्रशंसा किस को बुरी लगती है! Appreciation is an artist's due. प्रशंसा से हौसलाअफ़्जाई होती है और बेहतर, और बेहतर लिखने की प्रेरणा मिलती है।
उपन्यास के प्रति बुरी राय से, नुक़्ताचीनी से मैं कभी हतोत्साहित नहीं होता। मैं कारोबारी लेखक हूँ, मुझे majority के साथ चलना है। अगर majority कहती है कि नॉवल बेकार है तो अपनी व्यक्तिगत राय को दरकिनार कर के majority का वर्डिक्ट क़बूल करना पड़ता है और आइंदा के लिए सावधान हो जाना पड़ता है। अगर majority नॉवल को उमदा क़रार देती है तो मैं minority की राय को नज़रअन्दाज़ करना अफ़ोर्ड कर सकता हूँ। उपन्यास के प्रति नेगेटिव राय मुझे मायूस तो कर सकती है लेकिन मेरा हौसला नहीं तोड़ सकती क्यों की मुझे अपनी कलम पर विश्वास है, अभिमान है।
8. जिस प्रकार से आपके किरदारों के जीवन में हर कहानी में एक चैलेंज होता है उसी प्रकार से आपको अपने लेखन जीवन के दौरान क्या सबसे चैलेंजिंग लगा?
# कुछ चैलेंजिंग नहीं लगा। चैलेंज कैसा! मैंने कभी अपनी तुलना किसी दूसरे लेखक से नहीं की। सच पूछें तो मैं अपने ट्रेड के लेखकों को पढ़ता ही नहीं। लेखन का मेरा अपना संसार है जिस में मैं राज़ी हूँ। मेरा एक ही मिशन है कि मैंने अपने पाठक को राज़ी रखना है क्योंकि उसने मेरे पर विश्वास जाहिर किया है कि मेरे लिखे से उसे कभी निराशा नहीं होगी। मुझे उसके विश्वास पर खरा उतर कर दिखाना है, एक बार, दो बार नहीं, हर बार खरा उतर के दिखाना है और यक़ीन जानिए, ये कोई आसान काम नहीं। माथे का पसीना ख़ून बन कर काग़ज़ पर चुहचुहाता है तो एक कामयाब रचना बनती है।
9. आपने अपने लेखन करियर की शुरुआत 'कहानी' लिखने से की और आगे बढ़ते हुए 'उपन्यास' लेखन तक पहुँचे। कैसा संघर्षभरा रास्ता था ये? आपको अपनी लेखन शैली में कितना बदलाव करना पड़ा उपन्यास के पड़ाव तक पहुंचने में?
# कोई रास्ता सरल नहीं होता। विघ्न बाधाएँ हर रास्ते में आती हैं - आती हैं और चली जाती हैं, जीवन चलता रहता है। कोई बाधा डेरा डाल कर नहीं बैठ जाती। जैसे सुविधा का एक दौर होता है वैसे बाधा का भी एक दौर होता है। ईश्वर ने इंसान में बाधाओं पर विजय पाने की विलक्षण क्षमता पैदा की है। और दुशवारियाँ इम्तिहान होती है। बस, पास हो के दिखाने की ज़िद होनी चाहिए। कहने का तात्पर्य ये है की अपने धंधे में वक़्त की ज़रूरत के मुताबिक़ मैं कुछ भी लिखने में स्वयं को सक्षम पाता हूँ।
10. क्या आपने अपने लेखन करियर के आरम्भ में यह निर्णय पहले ही ले लिया था कि आप एक फुल टाइम लेखक बनेंगे और सोचा था कि ऊंचाई की इस बुलंदी तक पहुँच पाएंगे?
# ऐसा कैसे हो सकता है? कोई भविष्य में कैसे झाँक सकता है? पानी केरा बुदबुदा अस मानुष की जात - कल की ख़बर नहीं, कैसे भविष्य में इतना आगे तक झाँका जा सकता है कि एक दिन उपन्यास लेखन की दुनिया में मेरा कोई ख़ास, क़ाबिलेरश्क मुक़ाम होगा! फिर फ़ुल टाइम लेखक तो मैं कभी था ही नहीं - होता तो क्या 34 साल सरकारी नोकरी करता?
फिर 'फ़ुल टाइम लेखक' से आप की मुराद क्या है? क्या ये कि ऐसा लेखक लेखन के सिवाय कोई काम नहीं करता? सोते जागते बस लिखता है? ऐसा न होता है, न हो सकता है। जमा, भारत में हिंदी में लेखन को जीवकोपार्जन का साधन कोई विरला ही बना सकता है। इंग्लिश की बात जुदा है। इंग्लिश राजे की बेटी है। हिंदी - बस है।
11. आपको भारतीय क्राइम फिक्शन का बादशाह कहा जाता है। तो आप क्राइम फिक्शन के भविष्य को किस तरह देखते हैं?
# हिंदी में क्राइम फ़िक्शन का कोई भविष्य नहीं। कोई ऐसा लिखेगा तो प्रकाशक ढूँढ़े नहीं मिलेगा, क्यों कि
ट्रेडीशनल पॉकेट बुक्स छापने वाले प्रकाशक बचे ही नहीं। कभी ऐसी पॉकेट बुक्स छापने वाले 50-60 प्रकाशक होते थे, आज ऐसा सिर्फ़ एक प्रकाशक दिल्ली में है और दो मेरठ में हैं। बस।आज की तारीख़ में वही लेखक है जो इंग्लिश में लिखे। इंग्लिश के प्रकाशकों की कोई कमी नहीं - अभी और इज़ाफ़ा होगा - फिर विदेश की तरह अब यहाँ भी लिटरेरी एजेंट पैदा हो गए हैं जो नए लेखक और प्रकाशक के बीच में पुल का काम करते हैं। ये सुविधा हिंदी प्रकाशन में न उपलब्ध है, न होने वाली है।
Posted by Surender Mohan Pathak. Posted In : Interviews