भारत में भूत लेखन की शुरुआत का सेहरा हिन्द पॉकेट बुक्स के सर है जो कि भारत में हिन्दी पॉकेट बुक्स के भी ओरीजिनेटर थे। उन्होंने ही इस कारोबार का पहला भूत लेखक कर्नल रंजीत खड़ा किया था जिस की बाबत सालोंसाल किसी को पता न लगा था कि वो एक भूत नाम था। मार्फत हिन्द पॉकेट बुक्स अगर लेखक को पत्र लिखा जाता था तो बाकायदा लेखक का जवाब आता था। कोई लेखक से मिलने की दरख्वास्त भेजता था तो उसको बताया जाता था कि लेखक दिल्ली से दूर कहीं रहता था और अज्ञातवास पसंद करता था। बहरहाल कर्नल रंजीत हर प्रकाशक की आँख का कांटा था क्योंकि उसका नाम पाठक वर्ग में अत्यंत लोकप्रिय था और उसकी सेल काबिलेरश्क थी।

फिर कर्नल रंजीत के साथ एक हादसा हुआ।

उन दिनों कलकत्ता से संडे नाम की इंगलिश की एक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन होता था जिस के एक अंक में लेखक कर्नल रंजीत के बारे में एक लीड स्टोरी छपी जिस ने छपते ही पॉकेट बुक्स के ट्रेड में तहलका मचा दिया। पत्रिका के उस अंक के
  आवरण पर सिर्फ इतना दर्ज था:

WHO IS COL RANJEET?

भीतर उस भूत नाम के पीछे छुपे मूल लेखक का खुलासा था जिसका नाम मखमूर जालंधरी था और जो पहले दिन से प्रकाशक की नाक के बाल कर्नल रंजीत का भूत लेखक था। उस अंक में बाकायदा मखमूर की फ़ोटो के साथ उसका इन्टरव्यू था जिस में उसने स्पष्ट किया था कि वो – मखमूर जालंधरी नाम का पेशे से पत्रकार शख्स – कर्नल रंजीत के नाम से उपन्यास लिखता था। वो एक्सपोज़ छपने की देर थी कि पॉकेट बुक्स के सारे प्रकाशक जैसे सोते से जागे और बोले, “अरे, ऐसा भी होता था! ऐसा भी हो सकता था!” नतीजतन धड़ाधड़ भूत लेखक छपने लगे। बाजार में भूत लेखकों की जैसे बाढ़ आ गई जिन को अमूमन असली लेखक ही समझा जाता था लेकिन फिर धीरे धीरे पाठक सयाने होने लगे और उन्हें असली नकली की पहचान होने लगी।

नकली की पहचान का पहचान का उन दिनों ये तरीका था कि नकली – भूत लेखक – की किताब की पुश्त पर फ़ोटो नहीं छपती थी, जब कि असली लेखक की फ़ोटो छपना अनिवार्य होता था क्योंकि उसी की जिद होती थी कि फ़ोटो उसके वजूद को जेनुइन बनाती थी, पाठकों को आश्वस्त करती थी कि वो भूत नाम नहीं था।

उपरोक्त का बेजा इस्तेमाल तब के कुछ प्रकाशक यूं करते थे कि अपने भूत लेखक को जेनुइन दर्शाने के लिए पुश्त पर किसी की भी – रिश्तेदार की, दोस्त की – तसवीर छाप देते थे लेकिन वो सिलसिला देर तक फलीभूत न हो सका क्योंकि जागरूक पाठकों को ऐसे तैसे सूझ ही जाता था कि वो घोस्ट राइटर को पढ़ रहे थे।

ऐसी ढिठाई की हालिया मिसाल भूत नाम ‘रीमा भारती’ है जिस के नाम से छपे उपन्यास पर उस नाम से लिखने वाले भूत लेखक की पत्नी की फ़ोटो छपती है।          

गौर फरमाइए क्यों भूत लेखन पॉकेट बुक्स के प्रकाशकों के लिए अहम बन गया था!  

अहमतरीन बात ये थी कि भूत नाम प्रकाशक की प्रॉपर्टी होता था, उसके सदके उसे असली लेखक के – जिसे सब ‘फ़ोटो वाला लेखक’ कहते थे – नखरे नहीं झेलने पड़ते थे, न ही न लिखने की ये वजह सुननी पड़ती थी कि वो पहले ही पूर्णतया व्यस्त था, अतिरिक्त लेखन नहीं कर सकता था। फिर उजरत के मामले में उसकी मांग भी फटे जूते जैसी हो सकती थी – अक्सर होती ही थी।  इसके विपरीत भूत लेखक सदा उपलब्ध था, प्रकाशक नया - फर्जी, भूत - नाम खड़ा करता था, किसी सेमी बिजी या क्वार्टर बिजी, या स्ट्रगलिंग लेखक को पकड़ लेता था और उसके आगे भूत लेखन की आकर्षक पेशकश रखता था जिसको बेचारा, काबिलेरहम लेखक कुबूल कर लेता था – या लेखक कुबूल कर लेते थे, क्योंकि बेचारों की इस धंधे में कभी कोई कमी नहीं थी।

‘कर्नल रंजीत’ का राज़ उजागर हो जाने के बाद खुद हिन्द ने भी दिलेरी दिखाई और अपने शेड्यूल में ‘मेजर बलवंत’, कमांडर वर्मा जैसे और नाम जोड़े लेकिन कोई भी नाम मार्केट में स्थापित न हो पाया। लेकिन कर्नल रंजीत के बाद जिन दो भूत नामों ने कर्नल रंजीत सरीखी मकबूलियत हासिल की, वो थे राजवंश और मनोज। राजवंश का नाम कर्नल रंजीत की कामयाबी से मुतासिर हो कर, लेकिन उसकी पोल खुलने के बाद, खड़ा किया गया था और वो कर्नल रंजीत के बाद मकबूल हुआ दूसरा भूत नाम था। तीसरा भूत नाम मनोज था जो राजवंश और कर्नल रंजीत के आगे कहाँ ठहरता था, मुझे नहीं मालूम लेकिन इतना यकीनी तौर पर मालूम है कि सत्तर के दशक में उसका प्रिन्ट ऑर्डर एक लाख तक पहुँचा था।

उपरोक्त तीन भूत लेखकों के अलावा एक और भूत नाम का जिक्र यहाँ जरूरी है जिस का ट्रेड में दाखिला बहुत देर बाद हुआ लेकिन जिस के प्रकाश में आते ही जैसे भूत लेखक और प्रकाशक दोनों की लाटरी लग गई। वो भूत नाम था ‘केशव पंडित’ और उस भूत नाम के पीछे गुमनाम लेखक था राकेश पाठक। वो एक करिश्मा था जो क्योंकर हुआ, कहना मुहाल था। बस, लेखक प्रकाशक की राशि में होना दर्ज था इसलिए हो गया। नाम चल गया, कभी किसी ने न बताया कि क्यों चल गया, क्या खूबी थी जिसने उसे चलाया। ‘केशव पंडित’ छाप कर प्रकाशक मालामाल हो गया, भूत लेखक वैसा खुशनसीब निकला या नहीं, खबर नहीं।          

अब सवाल है, जब तक इन चार भूत नामों ने नाम कमाया, तब तक तो दर्जनों में भूत लेखक छपने लगे थे, सब ने नाम क्यों न कमाया? जो वजह मेरी समझ में आती है, वो ये है कि चार क्लिक किए नामों में से हर नाम के पीछे एक ही लेखक था – जैसे कर्नल रंजीत के नाम के पीछे मखमूर जालंधरी था, जैसे मनोज के पीछे अंजुम अर्शी था, जैसे राजवंश के पीछे आरिफ़ माहरवी था और जैसे केशव पंडित के पीछे राकेश पाठक था। भूत लेखन के बाकी पोषक प्रकाशक अपने पास स्क्रिप्ट्स का एक बैंक बना के रखते थे, यानी जो छपने लायक स्क्रिप्ट पेश हो, वो लेखक के इस सर्टिफिकेट के साथ दराज में कि अगर उसका उपन्यास प्रकाशक के किसी रजिस्टर्ड भूत नाम से छपता तो उन्हें कोई ऐतराज न होता। जब प्रकाशक को भूत लेखन के राम, श्याम, हरनाम जैसे भूत लेखक के नाम थोपने के लिए स्क्रिप्ट की जरूरत होती, वो दराज में हाथ डालता और जो स्क्रिप्ट हाथ में आ जाती, उसको अपने किसी भी भूत लेखक के नाम से छपने के लिए प्रिंटिंग प्रासेसिंग में लगा देता। यूं भूत लेखक का कोई स्टाइल स्थापित नहीं होता था, उसके लेखन में कोई यूनीफॉर्मिटी नहीं पाई जाती थी, लिहाजा पाठकगण उसके बिखरे हुए लेखन से खुद को आईडेन्टीफ़ाई नहीं कर पाते थे और वो ऐसे भूत लेखक से जल्दी विमुख हो जाते थे।

यूं प्रकाशक का खड़ा किया अपना मालिकी वाला नाम पिटता था, भूत लेखक का क्या जाता था! वो कहीं और भूत लेखन करने लगता था। ऐसे नावल के चलने, न चलने से उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था, चल जाए तो उसे वाहवाही हासिल नहीं होनी थी, पिट जाए तो उसे  कोई परवाह नहीं होनी थी – आखिर प्रकाशक का अपना खड़ा किया भूत नाम पिटा था, उसे क्यों परवाह होती! भूत नाम थोक में छपने की वजह से उसे तो अमूमन पता ही नहीं लगता था कि उसका लिखा कौन सा  उपन्यास किस प्रकाशक के स्थापित किस भूत नाम से छपा था।      

उस दौर के पॉकेट बुक्स व्यवसाय के कुछ भूत लेखकों को सदा खुशफहमी रही कि उनके लिखने से प्रकाशक का भूत नाम चला जो कि गलत था। कर्नल रंजीत का भूत लेखक मखमूर जालंधरी मेरी जाती जानकारी में चार जगह लिखता था – पढ़ें कि अक्सर दूसरों से लिखवाता था, यानी भूत लेखक की पुश्त पर भी भूत लेखक थे - लेकिन कर्नल रंजीत के  अलावा उस का कोई नाम न चला, जबकि गुणी ज्ञानी लेखक चारों का एक ही था, एक ही जैसा लिखता था। उसकी कलम की जादूगरी बाकी तीन जगह न चली। केशव पंडित के प्रेत लेखक राकेश पाठक के तो खुद के नाम से भी उपन्यास छपे लेकिन नहीं चले। ऐसा ही ‘मनोज’ का भूत लेखन अंजुम अर्शी  करता था लेकिन ‘मनोज’ जैसा और जितना उसका कोई नाम न चला। वैसे जनाब इस कारनामे के लिए भी मशहूर थे कि एक मर्तबा एक ही स्क्रिप्ट बिना कॉमा, फुल स्टॉप तब्दील किए दो जुदा शीर्षकों के तहत दो प्रकाशकों को ठोक दी और संयोग देखिए कि मुख्तलिफ़ भूत नामों से प्रकाशित दोनों पुस्तकें एक ही महीने एक ही वक्त में मार्केट में पहुंचीं।

फिर पोल खुलने पर क्या दोनों प्रकाशकों ने लेखक पर आग बगूला हो कर दिखाया?

कतई नहीं। दोनों का लाड़ला भूत लेखक, जिसके बिना दोनों का ही काम नहीं चलता था, ‘सॉरी’ बोल कर, खुद को ‘वक्त की जरूरत के आगे मजबूर’ बता कर बरी हो गया। क्यों हो गया? प्रकाशक अब खड़े पैर उसके स्तर का भूत लेखक कहाँ से लाता! लिहाजा सब माफ। सब हजम। भूत लेखक बदस्तूर ‘मनोज’ लिखता रहा।-

राजहंस ने भूत लेखन तो शायद नहीं किया था लेकिन मनोज पॉकेट बुक्स से डिसमिस किए जाने के  बाद जब वो डायमंड पॉकेट बुक्स के मोहताज थे – उस दौरान एक नावल हिन्द में भी छपा था लेकिन प्रकाशक ने आइंदा के लिए तौबा कर ली थी – और जब वहाँ भी दुरगत होने लगी थी तो उन्होंने  किसी दूसरे लेखक – भूत – के सरप्लस उपन्यास अपने नाम से छपवाने शुरू कर दिए थे। स्क्रिप्ट टाइप करवाते थे इसलिए छुपा रहता था कि हस्तलेख किसी दूसरे का था। ऊपर से कोढ़ में खाज कि यूं हासिल हुई स्क्रिप्ट कभी पढ़ लेने की जहमत नहीं करते थे। यानी उन्हें नहीं मालूम होता था कि उनके नाम और उनकी तसवीर के साथ छप कर मार्केट में पहुंचे उपन्यास में क्या प्रकाशित हुआ था! ये लच्छन उस लेखक के थे जिस को अपने लिखे – गनीमत! शुकर! – नावल में छपे एक छोटे से प्रसंग की वजह से राजधानी जयपुर में ही नहीं, राजस्थान के कई शहरों में मुकद्दमा झेलना पड़ा था। इस बाबत उनके हितचिंतक यूअर्स ट्रूली के खबरदार किए जाने के बाद भी किसी दूसरे की अपने नाम से छपवाने के लिए हासिल स्क्रिप्ट को उन्होंने कभी नहीं पढ़ा था।

ऐसा ही शेर दिलेर होना चाहिए लेखक को जिसने जीते जी अपने नाम को खुद गर्क कर लिया। कभी वो मनोज, डायमंड, हिन्द जैसे हैसियत वाले प्रकाशकों का हैसियत वाला लेखक था, कभी मेरठ के प्रकाशक काले चोर से नावल लिखवा कर उसकी तसवीर समेत उसके नाम से छापने लगे तो लेखक ने शहीदी अंदाज से अपने पर यूं जुल्म होता होना तो कुबूल किया लेकिन उस लानत को रोकने के लिए कोई कदम न उठाया। कोर्ट में जाना तो दूर, ऐसे किसी भ्रष्ट प्रकाशक को कोई छोटा मोटा नोटिस तक न भेजा, अपनी जाती हैसियत में कोई ऐतराज तक न दर्ज कराया। नतीजा ये हुआ कि उनकी ज़िंदगी में ही उनके नाम से इतने नकली उपन्यास छप गए जितने उनके लिखे असली उपन्यास नहीं थे।

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गोविंद सिंह की नाक बतौर लेखक कदरन ऊंची थी क्योंकि अपने लेखन के दम पर साहित्यकार तसलीम किए जाते थे और प्यारे लाल आवारा, कुशवाहा कान्त के समकक्ष होने की वजह से अपना दर्जा पल्प फिक्शन के लेखकों से कहीं ज़्यादा ऊंचा मानते थे। कानपुर में स्थापित थे लेकिन कोई मजबूरी सपरिवार दिल्ली ले आई और आ कर एक लोकल प्रकाशक की मुलाज़मत पकड़ ली जो बतौर लेखक कम थी, बतौर प्रबंधक ज़्यादा थी क्योंकि प्रकाशक की गैरहाजिरी में वही उसका ऑफिस संभालते थे। वो भूत नाम ‘रति मोहन’ के लेखक थे, लेकिन किसी के ऐसा हिंट भी देने पर भड़कते थे और सूरमाई से कहते थे, “मैं! गोविंद सिंह! दि गोविंद सिंह! मैं भूत लेखन करूंगा!”

इस बाबत आखिर वैसे ही एक बेऐतबार लेखक ने कमाल किया, प्रिंटिंग लेटर प्रेस में ‘रति मोहन’ की कम्पोज़ होती स्क्रिप्ट के कम्पोज़ हो चुके कुछ पेज प्रेस से चुरा लाया और जब वो किताब छपी तो स्क्रिप्ट के वो पेज – जो कि निर्विवाद रूप से गोविंद सिंह के सुन्दर हस्तलेख में थे और इसी वजह से दूर से पहचान में आ जाने वाले थे – और छपी हुई किताब उन पन्नों पर मार्क कर के, जो कि स्क्रिप्ट से कम्पोज़ हुए थे, लेखक को सादर भेंट की।

तो क्या लेखक मान गया कि वो ‘रति मोहन’ का भूत लेखक था?

`     हरगिज नहीं!

भूत लेखन का सबूत लाने वाले को पता नहीं गोविंद सिंह ने क्या कहा, ‘रति मोहन’ के प्रकाशक से गिला बराबर किया कि क्यों उस सिलसिले में उसकी सिक्योरिटी मजबूत नहीं थी! कोई छोटी मोटी बात तो थी नहीं, आखिर बैंक से नोट चोरी हुए थे!

      कहना न होगा कि जब तक भूत नाम ‘रति मोहन’ छपा, तब तक उस नाम से सामाजिक उपन्यास गोविंद सिंह ने लिखे और भूत लेखक करार दिए जाने पर अपना भड़कना कायम रखा।

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सत्तर के दशक में नौजवान, जोशीले लेखक अशोक दत्त ने भूत लेखन इस लोलीपोप के तहत मंजूर किया था कि वो एक नावल प्रकाशक के स्थापित – या स्थापित होने जा रहे – भूत नाम ‘पवन’ के लिए लिखेगा और उसके साथ उसी सेट में एक नावल उसके अपने नाम से भी छपेगा।

ऐसा हुआ बराबर लेकिन शुरुआत तब हुई जब कि प्रकाशक ने लेखक से ये लीगल कान्ट्रैक्ट साइन करा लिया कि वो हमेशा, आजन्म उसी के लिए लिखेगा।

लेखक ने एक बार कान्ट्रैक्ट मुझे दिखाया तो मैंने अपनी राय पेश करते कहा कि मेरे खयाल से कान्ट्रैक्ट में उसकी अवधि का जिक्र होना जरूरी था वरना वो बंधुआ मजदूरी का करारनामा था जो कि वैध नहीं माना जा सकता था – आखिर सरकार द्वारा बोंडिड लेबर बैन की जा चुकी थी।

सब सुन कर लेखक ने हारे हुए जुआरी जैसी काबिलेरहम शक्ल बना कर दिखाई लेकिन प्रकाशक के  सामने उस नाजायज कान्ट्रैक्ट का मुद्दा कभी न उठाया, बदस्तूर ‘अशोक दत्त’ और ‘पवन’ के उपन्यास छपते रहे।

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पॉकेट बुक्स के कारोबार की बड़ी नाक वेद प्रकाश शर्मा का करिअर बहुत अल्पायु में भूत लेखन से शुरू हुआ। नकल मारने के लिए अपने नाम राशि तब के प्रसिद्ध लेखक वेद प्रकाश काम्बोज को चुना जिन के उपन्यासों का बुनियादी फॉरमेट पहले ही इब्ने सफ़ी की नकल था। यानी बीच की कड़ी की लिए ये गौरव (!) की बात थी कि अपने लेखन की जो बुनियाद उसने इब्ने सफ़ी की नकल मार के खड़ी की, उसकी नकल मारने वाला भी युवा, नादान, कदरन नातजुर्बेकार लेखक वेद प्रकाश शर्मा निकल आया। शर्मा की आत्मस्वीकृति पब्लिक डोमेन में है कि अपने करिअर की शुरुआत में उन्हों ने कोई डेढ़ दर्जन उपन्यास ऐसे लिखे थे जो वेद प्रकाश काम्बोज के स्थापित स्टाइल की नकल थे और उसी के नाम से छपे नकली उपन्यास थे।  

यहाँ मुझे फिल्म संगीत लेखक कल्याण जी आनंद जी का एक चुटकुला याद आता है जो टीवी की आमद से पहले उन्होंने आल इंडिया रेडियो से प्रसारित अपने एक प्रोग्राम मे श्रोताओं को सुनाया था। किसी ने उनसे शिकायत की कि फलां संगीत निर्देशक ने उन की एक अत्यंत लोकप्रिय धुन की नकल मार ली थी, आप उसपर केस कीजिए। तब आनंद जी का जवाब था, “जिसकी नकल हमने मारी थी, जब उसने हम पर केस नहीं किया तो हम किसी पर केस क्यों करें!”

ये मिसाल न बेवजह है, न गैरवाजिब है। इस कारोबार में ऐसी कई मिसालें हैं जब कि किसी प्रकाशक के अनुरोध पर, बल्कि जिद पर, नकल की नकल मारी गई। नकल के महकमे में कई बद्अखलाक, बेबुनियाद लेखकों ने अपनी किस्मत आजमाई लेकिन कामयाबी का मुंह सिर्फ दो लेखकों के सिर बंधा जो कि इब्ने सफ़ी की गैरऐलानिया, गैरकानूनी शागिर्दी में थे:

अकरम इलाहबादी और वेद प्रकाश काम्बोज।

वेद प्रकाश शर्मा की ज़िंदगी में आखिर एक ऐसा दौर आया था जब वो प्रकाशक भी बन गए थे और जब वो दो कारोबारों में अपना तालमेल बनाए रखने में दिक्कत महसूस करने लगे थे। प्रकाशन उनकी मजबूरी था क्योंकि उनके लिखे उपन्यासों का कोई ‘टेकर’ नहीं रहा था, खुद न छापते तो बतौर लेखक उन का सितारा गुरूब हो जाता। लेकिन एक चिड़िया के चहचहाने से तो बहार नहीं आती! इसलिए उन्होंने ‘डार्लिंग’ और ‘मिस्टर’ जैसे भूत लेखक छापे और अपने सुपुत्र की सूरत में घर का लेखक खड़ा किया। शगुन शर्मा जेनुइन नाम था, उपन्यास की पुश्त पर बाकायदा उसकी फ़ोटो छपती थी, पर असल दर्जा भूत नाम वाला ही था क्योंकि उपन्यास उसके नाम से दूसरे – भूत – लेखक लिखते थे। बजातेखुद उससे पूछा जाता तो वो आज अपने आप को पचास उपन्यासों का लेखक बताता, जब कि तरीके से, सलीके से चिट्ठी नहीं लिख सकता।

या शायद चिट्ठी लिख सकता हो, बावक्तेजरूरत लिख सकता हो! 

अपनी ज़िंदगी में फिनोमिनल प्रसिद्धि प्राप्त लेखक दो साल और जिंदा रह जाता तो अपनी आँखों के आगे बतौर लेखक अपनी इनिंग को फुल स्टॉप लगा देख लेता। शायद ऐसे ही अंजाम के लिए कहा गया है, “इक हाथ से देती है दुनिया, सौ हाथों से ले लेती है।”

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गौरतलब है कि गुलशन नंदा के बाद सब से ज़्यादा नक्काल ओम प्रकाश शर्मा और वेद प्रकाश काम्बोज के आन खड़े हुए। लेकिन दोनों ने ही ‘लूट लिया’, ‘बर्बाद कर दिया’, ‘सरासर जुल्म है’ जैसी नारेबाजी ही लगाई, कभी अपने नाम से छपने वाले नकली नावल को कानूनी तौर पर रुकवाने की कोई कोशिश न की। खुद को मजलूम प्रोजेक्ट किया लेकिन जालिम पर कोई कानूनी कार्यवाही करने का इरादा कभी न किया।

काम्बोज के नाम से जब पहला नकली नावल छपा तो गुरु चेला दोनों उसके प्रकाशक के रूबरू हुए और उसे जताया कि ऐसा करना गलत था, नाजायज था, बल्कि गैरकानूनी था तो प्रकाशक का धृष्ट जवाब था, “तुम्हारे ‘वेद प्रकाश काम्बोज’ को कोई नेशनल अवॉर्ड मिला हुआ है जो हमारे ‘वेद प्रकाश काम्बोज’ को नहीं मिला  हुआ?” वस्तुत: उस का कोई ‘वेद प्रकाश काम्बोज’ था ही नहीं लेकिन होने का दावा करने में क्या हर्ज था! – खास तौर से तब जब दावा करने वाले का मुंह पकड़ने की मजलूम लेखक की कोई मर्जी ही नहीं थी।

ओम प्रकाश शर्मा के नाम से नकली उपन्यास छाप कर फायदा उठाने वाला प्रकाशक ही लेखक था और संयोग देखिए कि उसका नाम सच में ओम प्रकाश शर्मा था। अब वो ‘जनप्रिय’ ओम प्रकाश शर्मा की सहूलियत के लिए अपना नाम कैसे बदल लेता?

अब देखिए कैसे शर्मा मंडली ने – शर्मा, काम्बोज, साधना प्रतापी, जय प्रकाश शर्मा, गोविंद सिंह वगैरह ने – उसका भेजा घुमाया!

शर्मा टू को समझाया गया कि वो बहुत बढ़िया लिखता था, बतौर लेखक उसके सामने बहुत उज्ज्वल भविष्य था, जल्दी ही वो शर्मा वन से आगे निकल सकता था लेकिन ऐसा हो पाने में अड़चन थीं, उसी का नुकसान था क्योंकि उसने अपनी कोई इंडिपेंडेंट आइडेंटिटी तो बनाई नहीं थी! यूं शर्मा टू के मगज में ठोक कर बिठाया गया कि वो टाइटल की बैक पर अपनी फ़ोटो छापे ताकि पाठकों को पता चल सके कि वो मेरठ वाला जनप्रिय ओम प्रकाश शर्मा नहीं, नया, तेजी से उभरता ओम प्रकाश शर्मा था जो अपनी कमाल कलम के दम पर बहुत जल्द सारे पॉकेट बुक्स ट्रेड पर आंधी तूफान की तरह छा जाने वाला था।

शर्मा टू उन बातों में आ गया और अपने आगामी उपन्यास की बैक पर उसने अपनी फ़ोटो छापी और आइंदा भी ऐसे करते रहने का मंसूबा तहरीरी तौर पर जाहिर किया। नतीजतन जनप्रिय ओम प्रकाश शर्मा के धोखे में जो थोड़ी बहुत सेल उसकी किताब की पहले हो जाती थी, उसकी फ़ोटो छपते ही भ्रम दूर हो गया और सेल सिफर हो गई। जल्दी ही प्रकाशन बन्द हो गया और बतौर उदीयमान लेखक शर्मा टू जाने कहाँ गया!

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गुलशन नंदा इकलौते लेखक हैं जिन की करिश्माई तरक्की की पॉकेट बुक्स ट्रेड में उनके होते भी मिसाल दी जाती थी और उन के बाद भी, आज तक, मिसाल दी जाती है। जब तक उन्होंने लिखा, कोई दूसरा लेखक उनकी अपार लोकप्रियता के करीब भी न फटक पाया। चाँदनी चौक की एक ऑप्टिकल कंपनी में काउन्टर सेल्समैन की मामूली नौकरी करने वाला हम्बल लेखक मकबूलियत की उन बुलंदियों तक पहुँचा जिस तक कभी कोई दूसरा लेखक न पहुंच पाया, जब कि उसके दौर में रानू, दत्त भारती, आदिल रशीद जैसे समर्थ लेखक उसके कम्पीटीटर थे। ऐसे बाहैसियत लेखक के एक नक्काल प्रकाशक ने अपनी अनोखी, नायाब, बाकमाल – लेकिन फरेबी, सरासर धोखा - सूझ बूझ का परिचय दिया। उसने ‘गुलशन नंदा’ सीरीज निकाली जिस में गुलशन और नंदा दो प्रमुख पात्र थे इस लिए वो समझता था कि उसे अपनी छपी किताब को गुलशन-नंदा सीरीज कहने का अधिकार था। गुलशन और नंदा के बीच वो बहुत छोटा सा हाइफन (-) लगाता था जिसकी तरफ शायद ही किसी पाठक का ध्यान जाता था। ऐसे टाइटल पर बड़े बड़े अक्षरों में दर्ज गुलशन-नंदा के नीचे कदरन बारीक टाइप में ‘सीरीज’ लिखा होता था।

गुलशन-नंदा
सीरीज

  सवाल हुआ कि अगर वो किताब महज ‘गुलशन नंदा सीरीज’ थी तो उसका लेखक कौन था और टाइटल पर सीरीज के साथ उसका नाम क्यों नहीं दर्ज था?

उपरोक्त का लेखक-प्रकाशक ऑर्डर हासिल करने के लिए नियमित रूप से दरीबे के चक्कर लगता था जो कि तब पॉकेट बुक्स की होलसेल मार्केट होती थी और जहां एक मर्तबा एक बड़े, स्थापित असली गुलशन नंदा छापने वाले वयोवृद्ध प्रकाशक ने उसे अक्ल दी कि वो चालाकी नहीं चलने वाली थी, जिसे वो जल्दी तर्क नहीं करेगा तो फ्रॉड का केस बनेगा जो आखिर उसे भारी माली नुकसान तो पहुंचाएगा ही, जेल भी पहुंचाए तो कोई बड़ी बात नहीं होगी।

कहना न होगा कि ‘गुलशन नंदा सीरीज’ फिर न छपी।

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अब मैं बयान करना चाहता हूँ कि कैसे यूअर्स ट्रूली भूत लेखक बनने से बाल बाल बचा।

अहमदाबाद से गाइड पॉकेट बुक्स का प्रकाशन होता था जिस के प्रकाशक का दावा था कि सिर्फ उसे भारत में जेम्स हैडले चेज़ के उपन्यास प्रकाशित करने का अधिकार था – ये बात दीगर है कि बाद में वो दावा गलत साबित हुआ था। मैं उसके लिए चेज़ के अनुवाद करता था और बहुत अच्छी उजरत पाता था। प्रकाशक मेरे नए उपन्यास के बारे में भी कम उत्साहित नहीं था, अपनी मर्जी से, खुद मांग के मेरे दो नए उपन्यास – ‘कार में लाश’ और ‘पैंसठ लाख की डकैती’ – छाप भी चुका था। पॉकेट बुक्स ट्रेड के तकरीबन लेखकों का मुकाम दिल्ली था इस लिए ‘गाइड’ का प्रकाशक हर महीने अहमदाबाद से दिल्ली आता था। एक मर्तबा वो आ कर दरियागंज के एक होटल में ठहरा तो मेरी उससे मुलाकात आसान हो गई क्योंकि होटल वाली इमारतों की ही कतार में कोई दो सौ मीटर आगे आईटीआई का सरकारी दफ्तर था जिसमें मैं मुलाजिम था।

होटल की दूसरी मंजिल के एक कमरे में मैं अहमदाबादी प्रकाशक के रूबरू हुआ तो उसने भूत लेखन की एक आकर्षक पेशकश मेरे सामने रखी।

पूरी बात सुनने से पहले ही मैंने इंकार में सिर हिलाया।

“ऐसे हम तुम्हें डबल पेमेंट करेंगे।” वो आगे बढ़ा।

मेरा इंकार बरकरार रहा।

“घोस्ट नाम ऐसे छापेंगे कि असल में वो तुम्हारा ही नाम होगा।”

“वो कैसे?” मैंने पूछे बिना न रह सका।

“पाठक! पाठक नाम होगा मेरे प्रकाशन के अपने लेखक का।”

उसका जोर अपने लेखक पर था, भूत लेखक कहते शायद संकोच होता था।

“नहीं!”

मेरी दो टूक ‘नहीं’ से वो हकबकाया। कई क्षण विचारपूर्ण मुद्रा बनाए वो मेरे सामने खामोश बैठा रहा, फिर तुरुप चाल चली, “बैक पर फ़ोटो भी तुम्हारी होगी। अब क्या ऐतराज है? नाम तुम्हारा – मुख्तसर नाम तुम्हारा – फोटो तुम्हारी, अब क्या ऐतराज है?”

“सॉरी, मैं ये काम नहीं कर सकता। जब आप मेरे रेगुलर नाम से, रीडर्स में स्थापित नाम से मेरी किताब छाप रहे हैं तो . . .”

“वो भी हम तभी छापेंगे” उसने खामोश धमकी जारी की, “जब हमारी ये नई पेशकश कुबूल करोगे।”

मैं घबराया। वो खड़े पैर मुझे बेरोजगार कर देने का इशारा कर रहा था। इत्तफाक था कि मेरा नया उपन्यास उन दिनों बस वहीं छपता था।

“सोच लो!” प्रकाशक ने खामोश धमकी मजबूत की, “वंस इन ए लाइफ टाइम ऑफर है, बहुत पैसा कमाओगे . . .”

मेरा सिर अपने आप इंकार में हिला।

“. . . नीचे रिसेप्शन पर मखमूर जालंधरी बैठा मेरे बुलावे का इंतजार कर रहा है, वो मेरी कोई भी पेशकश आँख बन्द कर के कुबूल कर लेगा क्योंकि भूत लेखक तो वो पहले से है! मेरी प्रेफ्रेंस तुम हो इसलिए मैंने तुम्हें पहले बुलाया। अब फाइनली बोलो, क्या कहते हो?”

“नहीं!”

वो पहला और आखिरी मौका था जबकि किसी ने मुझे भूत लेखक बनाने की कोशिश की थी और मैं मूर्ख था जो इतनी बढ़िया ऑफर को कैश करने से इंकार कर रहा था, क्योंकि मखमूर को वो आधे पैसे भी नहीं देने वाला था।

अहमदाबादी प्रकाशक से वो मेरी आखिरी मुलाकात थी, अलबत्ता उसका दिल्ली का माहाना फेरा जारी रहा क्योंकि उसके लिए चेज़ के अनुवाद मैं तब भी करता था। फिर मैंने ही अनुवाद छोड़ दिया क्योंकि तकदीर ने साथ दिया, मुझे दिल्ली और मेरठ दोनों जगह वैल पेइंग प्रकाशक मिल गए।

इसे संयोग ही कहा जाएगा कि मेरे चेज़ का अनुवाद बन्द करने के थोड़ी देर के बाद ही अहमदाबादी प्रकाशक का धंधा चौपट और बेकाबू हुआ और फिर हमेशा के लिए बन्द हो गया।

प्रकाशक गीत ही गाता रह गया कि भारत में चेज़ के अनुवाद छापने का अधिकारी सिर्फ वो था और दिल्ली और मेरठ के प्रकाशकों ने चेज़ के उपन्यासों का ढेरा लगा दिया।

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तब के पॉकेट बुक्स ट्रेड में कुछ लेखक ऐसे भी थे जिन के अपने नाम से किताब छपती थी, कई कई किताबें छप चुकी थीं, फिर भी भूत लेखन से उन्हें कोई गुरेज नहीं था। ऐसे लेखकों में प्रमुख मिसाल कुमार कश्यप, राज़ भारती, दिनेश ठाकुर, फारुख अरगली और यश पाल वालिया की थी। वजह बडी आसानी से समझ में आ जाने वाली थी।

भूत लेखन में उजरत ज़्यादा और जिम्मेदारी सिफर!

अपने भूत लेखकों को उस दौर के प्रकाशक कोच कैसे करते थे, इसकी एक मिसाल मैं यहाँ इसलिए दर्ज करना चाहता हूँ क्योंकि उसमें खाकसार भी नाहक किरदार बन गया था। ‘मेजर पाटेकर’ नाम के नकली नाम के पीछे जो भूत लेखक था, वो दूर दराज किसी शहर में रहता था, उसको प्रकाशक ने एक चिट्ठी लिखी जो संयोगवश मेरे हाथ लगी। भूत लेखक को चिट्ठी में क्या हिदायत थी, वो नीचे दर्ज है:

आप की सेवा में आपके पूर्वप्रकाशित उपन्यास की पेमेंट का ड्राफ्ट भेजा जा रहा है। कृपया पावती की सूचना दें और लौटती डाक से रसीद भेज दें।

साथ ही आप को सुरेन्द्र मोहन पाठक द्वारा लिखित ‘विमल सीरीज’ के 23 उपन्यासों का पूरा सेट, जिन के नाम निम्नलिखित हैं, भेज रहे हैं।

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कृपया इनका ध्यानपूर्वक मनन करें और मेजर पाटेकर को विमल से भी ज़्यादा . . .

पत्र का दूसरा पेज उपलब्ध नहीं था लेकिन मेजर पाटेकर को विमल से भी ज़्यादा करिश्मासाज़ बनाने के लिए क्या क्या हिदायात जारी की गईं, उन का अनुमान लगा लेना कोई कठिन काम नहीं था। लेकिन इतना स्पष्ट था कि प्रकाशक के भूत लेखक के लिए विमल सीरीज के मेरे उपन्यास टैक्स्ट बुक थे जिन्हें बार बार पढ़ने की उसे हिदायत थी।

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उस दौर में कुछ साहित्यकार भी थे जिन्हें पॉकेट बुक्स ट्रेड की चौंधियाती खूबियों ने लुभाया, ट्रेड के बड़े लेखकों की फिल्म स्टार्स जैसी हैसियत ने चमत्कृत किया और लोभ के हवाले वो पल्प फिक्शन के उसी कीचड़ में जा कर गिरे जिसे हमेशा घटिया, स्तरहीन लेखन करार देते रहे और उसी लेखन के गुलशन नंदा जैसे कई लेखकों की लाखों की सेल से कुढ़ कर राग अलापते रहे कि  लोकप्रियता गुणवत्ता की शिनाख्त नहीं होती थी। साहित्यकार और ‘पराग’ और ‘सारिका’ के पूर्व-संपादक आनंद प्रकाश जैन ने ‘चंदर’ के नाम से भूत लेखन किया, मनहर चौहान ने यही ‘बिलो डिग्निटी’ काम ‘मीना सरकार’ के नाम से किया, ‘राग दरबारी’ जैसी साहित्य अकादमी पुरुस्कार से सम्मानित, कालजयी रचना के विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न लेखक श्रीलाल शुक्ल ने कोई भूत नाम न अडाप्ट किया, खुद के नाम से ‘आदमी का जहर’ नामक जासूसी उपन्यास लिखा और उस नए फील्ड में भी नाम कमाने की अभिलाषा में मुंह के बल गिरे। फिर भी जिद बरकरार रखी और घोषणा की कि अब वो एनीड ब्लीटन को मात करते बाल उपन्यास लिखेंगे। ये बात दीगर है कि ऐसा उन्होंने कभी न किया।              

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भूत लेखन और उसके प्रकाशन के मामले में तमाम पॉकेट बुक ट्रेड के सबसे बड़े खिलाड़ी – खुदा उन्हें जन्नतनशीन करे – राज़ कुमार गुप्ता थे। खुद भारत, सूरज, धीरज, संजय, टाइगर अला, बला भूत लेखक छापते थे और दूसरे प्रकाशकों को प्रेरित करते थे कि वो भी ऐसा ही करें; अपने लेखक खड़े करें, जो झोला भर नोट अपने फ़ोटो वाले लेखकों को देते थे, उसे अपने घर के भूत नामों को प्रोमोट करने में  खर्च करें। यानी अपने भूत लेखकों को साबुन और टुथपेस्ट की तरह प्रचारित करें ताकि फ़ोटो वाले लेखकों की उन्हें जरूरत ही न रहे और वो सब धीरे धीरे बेरोजगार हो जाएं।

“भाई जी,” गुप्ता जी की कई मर्तबा फ़ेलो पब्लिशर्स को अपनी इस नायाब, अछूती राय से नवाजते सुने गए थे, यही फ़ोटो वाले लेखक, जो हमारे ही दम पर नवाब बने हुए है, देख लेना जल्दी ही हाथ में कटोरा ले कर घूमेंगे और गिड़गिड़ा कर हम से काम मांगेंगे। तब यही लेखक होंगे जो हमारे लिए घोस्ट राइटिंग करेंगे।”

खुद गुप्ता जी अंडा नहीं दे सकते थे लेकिन आमलेट के बारे में मुर्गी से ज़्यादा जानते थे। अपने भूत लेखक को गोद में बिठा कर समझाते थे कि उसने क्या लिखना था, कैसे लिखना था, किस स्थापित लेखक का ‘थंडर’ पूरी बेशर्मी से चुराना था और साथ में कहते थे, “कोई ऐतराज उठाएगा तो मैं देख लूँगा।”

गुप्ता जी की ये दिलेरी भी गौरतलब थी कि छ: किताबों का सेट प्लान करते थे तो छ: के छ: भूत लेखक होते थे। जबकि दस्तूर ये होता था कि दो किताबें टॉप के फ़ोटो वाले लेखकों की होती थीं, दो दरमियानी हैसियत वाले लेखकों की होती थीं और बाकी दो या भूत लेखकों की होती थीं या एक लेखक नया होता था और एक भूत लेखक होता था। लेकिन दस्तूर से काम करें तो उन्हें राज़ कुमार गुप्ता कौन कहे!       

ऊपर वाले ने करम फरमाया कि फ़ोटो वाले लेखकों पर ऐसा कहर न टूटा, उनका अपनी अथक मेहनत से बनाया रुतबा बरकरार रहा और प्रकाशकों की कड़ी मेहनत और भारी खर्चे के बावजूद उनका तैयार किया एक भी पट्ठा - सॉरी भूत लेखक - नहीं चला और अपना धंधा चलाए रखने के लिए घूम फिर कर उन्हें फ़ोटो वाले लेखकों का ही मोहताज होना पड़ा।

बहरहाल भूत लेखन के सब से प्रबल हिमायती और पोषक प्रकाशक के तौर पर राज़ कुमार गुप्ता को सदा याद रखा जाएगा।

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सुरेन्द्र मोहन पाठक