बहरेपन के सताये एक लेखक की व्यथाकथा
Posted by Surender Mohan Pathak on Wednesday, March 19, 2025 Under: Memoirs
बहरेपन के सताये एक लेखक की व्यथाकथा
14 फरवरी को ‘संगत’ में मेरा लगभग दो घंटे का इंटरव्यू यू-ट्यूब पर दिखाई दिया
जोकि तीन हफ्ते पहले मेरी स्टडी में रिकार्ड हुआ था। ‘संगत’ के संचालक और इंटरव्यू लेने
वाले अंजुम शर्मा थे जो उससे पहले महान साहित्यकारों के, सेमीमहान साहित्यकारों के 92
इंटरव्यू कन्डक्ट कर चुके थे जबकि मैंने ‘संगत’ का कभी नाम भी नहीं सुना था वरना कुछ
तो मैंने जरूर देखे होते। अब जब ‘संगत’ का ही नाम नहीं सुना था तो अंजुम शर्मा के नाम
से वाकिफ होने की संभावना और भी कम थी।
उस वाकये से कोई चार महीने पहले मेरे पाठक और करीबी विशी सिन्हा ने मुझे
खबर की थी कि ‘संगत’ मेरा इंटरव्यू करना चाहता था और ‘संगत’ से वाकिफ़ कराने के लिए
जो इंटरव्यू मुझे फॉरवर्ड किया, वो अयोध्या निवासी लेखक यतीन्द्र मिश्र का था। उस इंटरव्यू
में मेरी औनी पौनी रुचि इसीलिए जागृत हुई क्योंकि मैं एक बार दिल्ली में मिश्र जी से मिला
था, तदुपरांत उनकी हिन्दी सिनेमा और संगीत सम्बंधी ‘हमसफ़र’ शीर्षक एक पुस्तक भी पढ़ी
थी। लेकिन जब इंटरव्यू देखने बैठा तो ये देख कर दिल छोटा हो गया कि इंटरव्यू ढाई घंटे
का था। समयाभाव की वजह से और दिलचस्पी की कमी की वजह से एक तो मैं इंटरव्यू ही
नहीं देखता था, दूसरे इतना लम्बा इंटरव्यू देखने जितना सब्र मेरे में नहीं था। फिर भी
देखना शुरू किया लेकिन जल्दी ही मन उचाट हो गया और आधे घंटे बाद मैंने उससे किनारा
इसलिए न किया कि इंटरव्यू में कोई खराबी थी बल्कि इसलिए देखता न रह सका क्योंकि
मेरे में खराबी थी, मेरे बेसब्रे मिजाज में खराबी थी।
फिर थोड़े थोड़े वक्फे में मैंने ‘संगत’ के कुछ और इंटरव्यू भी ट्राई किए लेकिन सब
की लम्बाई ने सताया और इस बात ने भी मन उचाट किया कि उन महान साहित्यिक
लेखकों को मैंने कभी पढ़ा नहीं था, और ईमानदारी से कहने की हिम्मत करूँ तो कईयों का
नाम भी नहीं सुना था। यहाँ काबिलेजिक्र बात ये है कि जिनके इंटरव्यू मैंने देखे-सुने, वो भी
उम्रदराज थे, कई तो उम्र में मेरे से – मैं पिच्चासी प्लस - बड़े थे लेकिन ऊपर वाले के
फज़ल से चौकस तंदुरुस्ती वाले थे, मेरी तरह झोल-झाल नहीं थे। कोई हेल्थ प्रॉब्लम थी तो
कम-से-कम बहरा कोई नहीं था, हियरिंग एड का मोहताज कोई नहीं था, सब पूरे
आत्मविश्वास के साथ गरज-बरस कर बोलते थे और मैं उन से रश्क करता था, अपने बनाने
वाले से गिला करता था कि क्यों उनकी तरह मैं भी सालम नहीं था।
फिर वो घड़ी आई जब कि जनवरी में खुद मेरा इंटरव्यू हुआ।
साहबान, यहाँ इंटरव्यू का जिक्र इसलिए नहीं है कि ‘संगत’ ने मुझे साहित्यकारों की
संगत के काबिल जाना, बल्कि मेरे उस गंभीर फिज़ीकल हैन्डीकैप की वजह से है जिस को
बहरापन कहते हैं। अपनी वर्तमान आयु में मुझे बम फटे का पता न चले अगरचे कि हियरिंग
एड का आसरा न हो। श्रवण का नकली उपकरण कितना भी उम्दा क्यों का हो, खुदा के अता
फरमाए उपकरण का -कान का - मुकाबला नहीं कर सकता! तकरीबन मुकाबला करने का दम
भरने वाला उपकरण दो-पौने दो लाख रुपये का आता है जिसे मैं अफोर्ड तो कर सकता हूँ
लेकिन जिस शख्स की ज़िंदगी की अगली सांस का भरोसा न हो, उसका इतनी फ़ैन्सी
हियरिंग एड पर इतना फ़ैन्सी खर्चा करना मैं मुनासिब नहीं ठहरा सकता। मेरी उम्र में लोग
कच्चा केला नहीं खरीदते क्योंकि नहीं जानते कि पक जाने का इंतजार करने लायक ज़िंदगी
अभी बाकी है या नहीं।
फिर हियरिंग एड मैं एक कान में लगाता हूँ क्योंकि दूसरा कान टोटल बहरा है। यानी
मशीन से हासिल ऐडवांटेज में 50 फ़ीसदी की कटौती तो वैसे ही हो गई।
साक्षातकारकर्त्ता अंजुम शर्मा बहुत मीठा बोलते थे लेकिन आदतन लो-पिच पर बोलते
थे, ये बात भी मेरे लिए प्रॉब्लम बनी। ऊंचा बोलने की दरख्वास्त की तो बस इतना फर्क
सामने आया कि स्लाइटली हाई लो-पिच पर बोलने लगे जोकि मेरे लिए कोई मदद न साबित
हुई। उनका हर सवाल मेरे लिए इम्तिहान बन गया कि इस बार जवाब सवाल का होगा या
मैं अंदाजन दाएं बाएं की हाँकूँगा!
खराब हियरिंग के बारे में उपरोक्त सारी भूमिका इसलिए है कि इंटरव्यू के दौरान
एक तो मुझे खबर ही न लगी कि जो मेरे से पूछा गया था, मैं उसका जवाब नहीं दे रहा था,
कुछ और ही कहे जा रहा था। दूसरे, कई जवाब ऐसे दिए जो, कर्टसी हियरिंग प्रॉब्लम, मेरे
अंदाजे की उपज थे, यानी मैंने समझा मैं दुरुस्त जवाब दे रहा था लेकिन उनका दुरुस्त होना
बेमानी था जबकि जो पूछा गया था उसके जवाब वो नहीं थे। जो अपने आप में दुरुस्त थे
लेकिन सवाल का जवाब नहीं थे। ‘सवाल गंदुम जवाब चीना’ थे। (सवाल गेहूं की बाबत था,
जवाब चीनी की बाबत था)
फिर दो तीन सवाल ऐसे थे जो मैंने जैसे तैसे सुने तो सही लेकिन जो मेरी समझ में
ही न आए। जो अपने आप में दुरुस्त थे लेकिन मेरी पहुँच से बाहर थे, ऐसा साफ कहने की
जगह मैंने जो जवाब दिए, उनमें से एकाध तुक्के से दुरुस्त निकल आया लेकिन वो मामूली
तसल्ली थी, कुल जमा नतीजा बद्मजा साबित हुआ था, शर्मिंदगी का बायस बना था। जमा,
यूं जो किरकिरी मुझे झेलनी पड़ी, उसकी हाथ के हाथ मुझे खबर भी न हुई। न उस बाबत
मुझे साक्षात्कारकर्त्ता अंजुम शर्मा ने टोका और न उन दो दोस्तों ने टोका जो रिकॉर्डिंग के
दौरान वहाँ मौजूद थे। शायद मुलाहजा निभाया, मेरी सफेद दाढ़ी की लाज रखी। लेकिन दिल
ने बहुत दुख माना। बहरेपन को जी भर के कोसा, हियरिंग एड को और भी ज्यादा जिसने
ठीक से अपना हियरिंग एड वाला रोल अदा न किया। जिसकी वजह से मैं गैरइरादतन तनहा!
तनहा, ताकि हियरिंग एड हैन्डीकैप न बने! कुछ सुनना ही नहीं तो कुछ बोलने का तो
तकाजा ही खत्म!
अर्ज है कि बहरेपन की वजह से मैं टीवी नहीं देखता। घर में अखबार नहीं आता
इसलिए खबरें देख लेता हूँ क्योंकि ज्यादातर जो कहा जाता है, वो लिखा हुआ भी स्ट्रिप के
तौर पर फ्लैश होता है जिसे पढ़ने से खबर पूरी नहीं तो औनी पौनी समझ में आ जाती है।
या नेताओं जैसे चिल्ला कर बोलने वाले समझ में आ जाते हैं।
मैं टीवी का वॉल्यूम भी ऊंचा नहीं कर सकता। करता हूँ तो पड़ोसी ही नहीं, एक
मंजिल नीचे वाला भी ऐतराज करने आ जाता है - शुक्र है अभी, ऊपर वाला कोई नहीं है -
मैं पुराने, ब्लैक एण्ड व्हाइट फिल्मों के गाने शौक से सुनता था। कभी सुनता था तो ऐतराज
करने आया पड़ोसी उत्सुकतावश ये भी पूछ कर जाता था कि हमारे घर में पुराने गानों का
शौकीन कौन था। घर वाले मेरी लाज रखते थे, नहीं कहते थे कि था घर में एक पुराने गानों
जितना पुराना बंदा – मैं!
बहरहाल जैसी बीती, भली बीती। हियरिंग को ले कर मेरे मन में जो चोर था, वो
कईयों पर तो उजागर ही न हुआ पर कोई जानता या न जानता, मैं तो जानता था कि
कितनी जगह मेरा कहा इररेलेवेंट हो गया था।
तुक्के से दुरुस्त निकला एक जवाब यहाँ दर्ज है:
न मैं कालजयी लेखक हूँ, न मेरा लेखन कालजयी है। जब तक हूँ, तब तक लेखन है।
प्रेमचंद की पीढ़ी तैयार करने वाली किस्म के लेखकों की मैं परछाई भी नहीं। मैंने पेडीग्री के
लिए नहीं लिखना, अपने लिए लिखना है, वर्तमान में उपलब्ध अपने कमिटिड पाठकों के लिए
लिखना है। मेरी किस्म के लेखन में लेखक के साथ – भले ही वो काबिलेरश्क मकबूलियत
हासिल कर चुका हो – उसका लिखा खत्म है। ये फसल तभी तक फलदायक है जब तक
फसल खड़ी करने वाला सलामत है। मैं इस घड़ी का लेखक हूँ, आने वाली घड़ी में – घड़ियों
में - मेरी कोई पूछ बन पाना पूर्णतया संदिग्ध है – डिस्टेंट ड्रीम है। इस सिनेरिओ का खयाल
करते मन मसोसता है लेकिन हकीकत यही है।
ये जवाब यहाँ मैंने इसलिए दर्ज किया है क्योंकि इस का हवाला एक बार आगे अभी
आएगा।
इंटरव्यू की शुरुआत में ही एक और मिसएडवेन्चर मेरे साथ हुई। मैं हियरिंग ऐड
बाएं कान में लगाता हूँ और मेरा वही कान, बमय हियरिंग ऐड, कैमरे के सामने था। दूसरे,
मेरी लापरवाही से उसी तरफ शेव – जो मैंने हफ्ते बाद खास इंटरव्यू वाले दिन के लिए की
थी - ठीक नहीं हुई थी। बाद में रिकॉर्डिंग देख कर पता चला कि उस वजह से उधर का गाल
ऐसा लगता था जैसे किसी स्किन डिसीज़ का मारा था। हमेशा शेव सावधानी से करता था,
क्योंकि हफ्ते-दस दिन में एक बार करता था, और अपना हियरिंग ऐड वाला प्रोफाइल छुपा
कर रखने की कोशिश करता था लेकिन इंटरव्यू वाले दिन वही प्रोफाइल कैमरे के सामने था।
इतने लोग वहाँ मौजूद थे - कैमरा क्रियू, दो दोस्त, खुद साक्षात्कारकर्त्ता अंजुम शर्मा - वक्त
रहते किसी ने उस बात की तरफ तवज्जो दिलाई होती तो दोनों नुक्स सिर्फ अंजुम शर्मा से
सीट बदल लेने से छुप सकते थे। मैं ऐसा करता तो मेरा राइट प्रोफाइल कैमरे की तरफ
होता, तब न कान में मौजूद हियरिंग एड दिखाई देती और न शेव में हुई लापरवाही उजागर
होती।
सिर पर ढाई बाल बाकी हैं लेकिन कटिंग कराने जिस सैलून पर जाता हूँ, वो मेरे
नोएडा स्थित घर से पच्चीस किलोमीटर दूर खान मार्केट में है जहाँ की मेरी विज़िट ओवर-
ओवरड्यू थी, नतीजतन पीछे के बाल इतने बढ़ गए हुए थे कि मैं चाहता तो पोनी टेल बना
सकता था, रिबन डाल सकता था। जमा, रिकॉर्डिंग में सारा सिर सफेद दिखाई दे रहा था
जबकि बाल अभी सारे सफेद नहीं हुए थे। और जमा, जो ड्रेस मैं उस घड़ी पहने था, वो
बिलकुल माकूल नहीं थी।
हजरात, अपीयरेंस-कांशस मैं इस उम्र में भी हूँ इसलिए मेरी निगाह में उपरोक्त
तमाम बातें एक हादसा थीं जोकि मेरे साथ गुजरा था और जो मेरे लिए बड़ा लेट-डाउन बना
था।
अब कुछ सवाल मुलाहजा फरमाइए जो इंटरव्यू की रिकॉर्डिंग के तीन हफ्ते बाद तब
मेरी समझ में आए जब मैंने लैपटॉप का वॉल्यूम मैक्सीमम पर किया, साथ में सब-टाइटल्स
ऑन किए और जो मेरा वाटरलू बने:
सवाल : “बहुत सारे प्रकाशकों के पास आपको वेद प्रकाश काम्बोज लेकर गए
थे। अभी पिछले दिनों देहांत हुआ कंबोज जी का, क्या सबसे अच्छी बात आपको
उनकी याद आती है?”
सवाल के पहले भाग का दुरुस्त जवाब था कि काम्बोज साहब बतौर लेखक मेरी
सिफारिश के लिए कभी मुझे किसी प्रकाशक के पास न ले के गए। दूसरे भाग की बाबत अर्ज
है कि कोई अच्छी बात मैं तभी तो याद करता जबकि सवाल मेरे पल्ले पड़ा होता! जवाब में
कोई अच्छी बात तो न बताई, कुछ और ही कहना शुरू कर दिया, जैसे कि ओम प्रकाश शर्मा
का घर लेखकों का – खास तौर से लेखकों का - प्रकाशकों का अड्डा था, छोटे बड़े सब लेखक
शाम ढले वहाँ हाजिरी भरते थे। उस महफ़िलबाजी का विस्तृत बखान कर डाला जबकि उस
बाबत कोई सवाल मेरे से पूछा ही नहीं गया था। बात काम्बोज की हो रही थी, नाहक मैंने
उसमें शर्मा जी को दाखिल कर दिया था।
इसमें कोई शक नहीं कि मेरा पहला उपन्यास घनघोर सिफारिश से छपा था लेकिन
वो सिफारिश काम्बोज ने नहीं, ओम प्रकाश शर्मा ने की थी जोकि एक ही बार चली थी।
दोबारा उनकी सिफारिश भी फेल हो गई थी और तदुपरांत कभी सिफारिश की ही नहीं थी।
सवाल: “आप असाइनमेंट पर ज्यादा लिखते हैं!”
जवाब नदारद।
जवाब देता तो कहता कि ऐसा करता तो मैं हूं लेकिन इस बाबत प्रकाशक की लाइन
टो नहीं करता। इस सिलसिले में प्रकाशक का रोल इतना ही होता है कि उससे व्यावसायिक
शर्तें सेटल की जाती हैं, उसका लेखक को ये बताना नहीं बनता, नहीं कुबूल होता कि लेखक
क्या लिखे, क्या न लिखे। न ही उसका ये कहना बनता है कि मैं अपने लिखे में उसकी राय
पर – बल्कि हुक्म पर – कोई हेर फेर कोई घट बढ़ करूँ। मैं जो परोसूँ वो उसने कुबूल करना
होता है, फिर भी कोई शिकायत हो, असंतोष हो तो वो मेरे से किनारा कर सकता है जोकि
वो कभी नहीं करता क्योंकि उसने लेखक के चले हुए नाम को – रिपीट, नाम को - कैश
करना होता है, उसके लिखे से उसका सरोकार नहीं होता। अमूमन तो वो स्क्रिप्ट को या
प्रकाशित उपन्यास को पढ़ता ही नहीं।
सवाल: “आपके लिए क्रिएशन इम्पॉर्टन्ट नहीं, प्रोडक्शन इम्पॉर्टेंट है?”
जवाब नदारद।
अलबत्ता आगे चल कर इसका जवाब आया था जब मैंने कहा था – I am not a
writer, I am a businessman, my business is writing. जब मैंने कहा था - You
create; I produce. I concoct. I manipulate. I fabricate. I improvise. I do
anything for the cause.
सवाल: “अधिकतर उपन्यासों की शुरुआत में हत्या हो चुकी होती है, यानी
आप हत्या के बाद के सिनेरिओ में ज्यादा जाते हैँ – इसकी कोई खास वजह?”
मेरा जवाब इस सवाल का नहीं था। सवाल हत्या की बाबत था, उसकी कथानक में
जरूरत की बाबत था, लेकिन सवाल का जवाब नदारद था। निवेदन है कि कहानी में हत्या
पहले हो चुकी हो तो उसकी ग्राफिक डिटेल में जाने का तो स्कोप ही नहीं रहता। कत्ल होता
है, खबर मिलती है, बाकी सब मैटर ऑफ रिकार्ड है जैसे कि:
मौका-ए-वारदात की लाश समेत तस्वीरें।
फोरेंसिक रिपोर्ट।
पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट।
गवाहों के/सम्बंधित व्यक्तियों के बयान,
वगैरह!
सवाल: “आपके अधिकतर हीरो पंजाबी हैं। क्या इसलिए क्योंकि आप खुद
पंजाबी हैँ।”
दुरुस्त जवाब न दे सका। वक्त पर ध्यान भटक गया। सिर्फ इतना कहा सका कि
सुनील पंजाबी नहीं, बंगाली था। जबकि दाखिलदफ्तर करना चाहिए था:
सुनील चक्रवर्त्ती (बंगाली)
विमल सोहल (सिख)
जीत सिंह हिमाचली
विवेक आगाशे (मराठा)
मुकेश माथुर (यूपियन/कायस्थ)
वगैरह
सवाल: “जब आप गुण अवगुण डाल रहे होते हैं किसी कैरेक्टर के
भीतर तो नैतिकता और अपराध के बीच हमेशा एक दिलचस्प-सा द्वन्द्व
होता है। क्या कभी ऐज़ ए राइटर आपके भीतर द्वन्द्व चलता है कि
नैतिकता और अपराध के बीच में मैं झूल रहा हूँ, मैं कहाँ जाऊंगा?”
सवाल समझ में ही न आया। सच पूछें तो इंटरव्यू की रवानगी में समझने की
कोशिश ही न की। जो जवाब दिया, वो था – क्राइम को ग्लोरीफाई नहीं किया। विलेन की
वाहवाही नहीं की। आगे यूटीआई बैंक डकैती की मिसाल दी जिसमें मेरा उपन्यास पढ़ के एक
युवक मानव बम (सबकुछ नकली) बन के बैंक में घुस आया और मैनेजर को धमकाया कि
वो खुद को ब्लास्ट कर देगा, उसके समेत सब मर जायेंगे वरना सारा कैश उसके हवाले
किया जाए। मजबूर मैनेजर ने उसकी मांग पूरी की। लुटेरा युवक हाथ आए माल के दम पर
ऐश करने बैंकॉक चला गया, लौटा तो गिरफ्तार हो गया। फिर डीसीपी की प्रेस कांफ्रेंस में
कुबूल किया कि मानव बम बनने का आइडिया उसे सुरेंद्र मोहन पाठक का उपन्यास ‘शेर
सवारी’ पढ़ कर सूझा था।
जवाब का सवाल से क्या रिश्ता बना? जवाब की क्या रेलेवेंस थी?
ऐसे ही ‘कॉनमैन का जिक्र उठाया गया:
“महिला उद्योग, जिसका काम महिलाओं के मान सम्मान की रक्षा के लिए
आगे आना है, खुद हमें अबला और मजलूम करार देने पर तुला हुआ है। इस तरह के
डायलॉग्ज़ की बात कर रहे हैँ तो ये बहुत कांशस हो कर लिखी गई चीजें हैं कि भाई
चलो एक कोर्ट लेते आते हैँ, बीच में महिलाओं की बात कर देंगे तो वही कह रहा हूँ
कि जब नैतिकता और अपराध . . . क्योंकि अपराध कथाएं नैतिकता के दूसरे क्षेत्रों
में होती हैं। मान लीजिए हम बहुत इनफ़ॉर्मल वे पर यहाँ पर बैठे हों और बात कर
रहे हों तो आप मुझ से ज्यादा खुल कर बात कर पाएंगे, उस टाइम पर जैसा सोचते
होंगे। क्या आप उस समय लिखते हुए उसको दरकिनार कर के केवल कैरेक्टर्स में
घुस कर सोच पाते हैं?”
अब देखिए मैंने क्या जवाब दिया – मैं प्रीचर नहीं हूँ, रिफॉर्मर नहीं हूँ, मैं अपना
तसव्वुर समाज सुधारक के तौर पर नहीं कर सकता।
सवाल तो कुछ और ही था। जो मैंने कहा, वो सुनने में काफी रौबदार लगता था
लेकिन जो पूछा गया था, वो उसका जवाब क्योंकर था? जवाब है, नहीं था। अब योर्स ट्रूली
व्यूअर्स के रिडीक्यूल का सब्जेक्ट बनता है तो बने। अपने बहरेपन को कोसता है तो कोसे।
और क्या करे? दुहाई तो नहीं दे सकता - लोगो, मैं उतना नादान नहीं हूँ जितना इस इंटरव्यू
में जान पड़ता हूँ। मेरा यकीन करो मैं बहुत काबिल, चतुर सुजान, बुद्धिमान व्यक्ति हूँ,
वगैरह।
सवाल: “कई बार होता ये है कि पढ़ते हुए पाठक उन पंक्तियों के भीतर लेखक
की मानसिकता की और लेखक की या उसको समझने की कोशिश भी करता है जो
कि व्यक्तिगत तौर पर नहीं होनी चाहिए कि क्योंकि वो लिख रहा है, वो दूसरे जोन
में है। व्यक्ति के तौर पर वो दूसरा हो सकता है लेकिन उसके सबकांशस माइन्ड में
जो चल रहा है, वो कहीं न कहीं उन पंक्तियों में झलक ही जाएगा। आप कितना भी
रोकेंगे, आप रुक नहीं पाएंगे, वो लिख देंगे। मैं उस प्वायंट ऑफ व्यू से जानना चाह
रहा था क्योंकि अपराध कथा में जाहिर-सी बात है आप अपराधी नहीं हैँ तो वो चीजें
कैसे आती होंगी, वो डिटेक्टिंग या इनवेस्टिगेशन में आप कैसे जाते होंगे और उस
समय अपने आपको ऐज़ सुरेन्द्र मोहन पाठक अलग कर के ऐज़ ए राइटर आप कैसे
रखते होंगे? मैं खाली उस हवाले से सब जानना चाहता हूँ और कुछ नहीं!”
सवाल बहुत विस्तृत था, मुकम्मल तौर पर तो मेरी समझ में ही नहीं आया। यही
कह कर काम चलाया कि लिखते वक्त मैंने अपराध या अपराधी की मानसिकता की ग्राफिक
डिटेल में नहीं जाना होता। मिस्ट्री स्टोरी में पाठक लेखक का हमसफ़र होता है, इसलिए वो
उन बातों को समझता है जिन को विस्तार देना लेखक ने जरूरी नहीं समझा होता। अपनी
बात को पुख्ता करने के लिए मैंने अपने उपन्यास ‘बीस लाख का बकरा’ से मिसाल दी
जिसमें एक मवाली एक ऐसे घर में घुसता है जिस में घर की मालकिन महिला अकेली होती
है। वो उसको उसके ही घर में बंधक बना लेता है और कोई नशीली दवा धोखे से खिला कर
उसे लम्बी बेहोशी के हवाले कर देता है। अगली सुबह जब वो अपने होशोहवास अपने काबू में
पाती है तो जान कर हैरान होती है कि वो जो नीचे ड्रॉइंगरूम में थी, अब ऊपर बेडरूम में
थी। आतंकित भाव से वो आततायी से पूछती है, “तुम ने रात को क्या किया?”
यहाँ लेखक, मैं, चाहता तो ‘रात को क्या किया’ को चार पेज में बयान कर सकता
था। लेकिन मैंने ऐसा कुछ न किया जवाब में मैंने सिर्फ एक लफ़्ज़ लिखा:
“सोच!”
और बाकी सब पाठक की इमेजिनेशन के हवाले कर दिया। वो भ्रष्ट दिमाग का होगा
तो कुछ भी अला बला सोचेगा, उसे विजुअलाइज़ करेगा और यूं आनंदित होगा जैसे आततायी
की जगह वो खुद घर की मालकिन के साथ काम-क्रिया में लिप्त हो। कोई संस्कारी मानस
होगा तो लेखक की तरह ‘सोच’ को मुनासिब और मुकम्मल जवाब समझेगा और कहानी के
साथ आगे बढ़ेगा।
सवाल: “आपकी दिनचर्या अनुशासित है, डिसिप्लिंड लाइफ है, ट्वेंटी फोर
आवर्स बेसिज़ पर आपने लिखना है, पढ़ना है, सोचना है। आप इसलिए लेखक हैं,
इसमें (अपने पसंदीदा शगल में इतनी लगन बनाये रखने में) तो बहुत सारे समझौते
भी आपको करने पड़ते होंगे?”
मेरा जवाब कुछ और ही था। समझौते करने पड़ते हैं या नहीं पड़ते, उसका जिक्र ही
न आया क्योंकि सवाल ठीक से सुनाई ही न दिया। नया ही राग शुरू कर दिया कि हम
क्राइमरिडन सोसाइटी में रहते है वगैरह। सवाल से इस बात का कोई रिश्ता ही नहीं था।
सवाल तो ये जानना चाहता था कि ट्वेंटी-फोर-आवर्स-राइटर होने की वजह से ज़िंदगी के
कौन-से काम थे जो जरूरी थे लेकिन जिन की तरफ तवज्जो मैं न दे सका।
मैं ने डेली पेपर्स की नाहक मिसाल ठोक दी जो हर रोज़ हत्या, डकैती, बलात्कार
वगैरह की खबरों से रंगे होते थे। सोसाइटी में ‘क्राइम का बोलबाला’ की मैंने नाहक, गैरजरूरी,
बेमानी मिसाल दी लेकिन ‘ज़िंदगी में समझौतों’ का कोई जिक्र न किया जिनकी बाबत कि
सवाल था। अंजुम शर्मा ने भी टोका नहीं कि भई, सवाल ये नहीं ये था। टोकते तो यकीनन
दुरुस्त जवाब देता, वो जवाब देता जो होना चाहिए था।
सवाल: “स्वांत: सुखाय तो आप नहीं लिखते?”
जवाब नदारद!
सवाल काबू में आया होता तो कम-से-कम इतना तो कहता कि मैं ‘स्वांत: सुखाय’
नहीं लिखता ‘सर्वजन सुखाय’ लिखता हूँ। इज्जत रह जाती।
सवाल: “हर राइटर कोई न कोई एक पीढ़ी तैयार करता है। हर राइटर नहीं भी
करता तो एकदम से उस क्षेत्र में महान हो जाते हैँ वो . . .”
मैंने बिलकुल बेमेल जवाब दिया। फिर सवाल गंदुम जवाब चीना वाली मिसाल कायम
की। कहा कि जो जेनुइन राइटर होगा वो कंसिस्टेंट जरूर होगा। रिकॉर्डिंग देख कर सवाल
समझ में आया तो माथा पीट लिया। कैसे ये उपरोक्त सवाल का जवाब हुआ? मेरा सवाल
सुन कर जो लोग मुझे अहमक करार देंगे, उन्हें क्या मैं घर घर समझाने जाऊंगा कि जनाब,
मैं अहमक नहीं बहरा हूँ। दोनों बातों में फर्क है इसलिए बरायमेहरबानी खता माफ फरमाएं।
अंजुम शर्मा भी तब तक शायद मेरे बेमेल जवाबों से परेशान हो उठे थे, उन्होंने मुझे
फिर याद दिलाया कि सवाल असल में क्या था:
“मैं पीढ़ी तैयार करने की बात कर रहा हूँ, जनरेशन तैयार करने की बात कर
रहा हूँ पूरी की पूरी। जो बड़े राइटर होते हैं, आप को लगता है कि आप जिस
जनरेशन में लिखते हैं . . . मैं कह रहा हूँ कि जब एक क्राइम राइटर अपने जॉनरा
में उस जॉनरा का एक बुलंद पाया बन जाता है तो वो एक पीढ़ी तैयार करता है,
जनरेशन तैयार करता है। उस जनरेशन को कहते हैं – ‘भैया, ये प्रेमचंद की जनरेशन
के राइटर हैँ’। ऐसे आपको लगता है आपने भी कोई पीढ़ी तैयार की?”
मेरी ट्रेजेडी थी कि टोके जाने के बाद भी मेरी समझ में कोई इजाफा न हुआ, सवाल
तब भी मेरी पकड़ में न आया। फिर कोई बेतुका, बेमेल जवाब देने की नादानी करने की
जगह मैंने ये कह के सवाल से पल्ला झाड़ने की कोशिश की कि वो मेरे स्कोप से बाहर था।
हियरिंग ने दगा न दिया होता तो मैं कहता कि उस सवाल का जवाब मैं पहले ही दे चुका था
जबकि मैंने कहा था कि न मैं कालजयी लेखक हूँ, न मेरा लेखन कालजयी है। जब तक मैं
हूँ, तब तक मेरा लेखन है। बस! मैंने पेडीग्री के लिए नहीं लिखना, अपने लिए लिखना है,
अपने हालिया प्रशंसक, गुणग्राहक, मेहरबान पाठकों के लिए लिखना है। मेरे ट्रेड में राइटर के
साथ उसका लिखा खत्म है। ये फसल तभी तक फलदायक है जब तक फसल खड़ी करने
वाला सलामत है। मैं इस घड़ी का लेखक हूँ, आने वाली घड़ी में – घड़ियों में – मेरी कोई पूछ
बन पाना पूर्णतया संदिग्ध है – डिस्टेंट ड्रीम है।
अब सोचिए, ऐसे लेखन में अगली पीढ़ी का दखल कैसे आ गया!
सवाल: “कभी अपने प्रकाशन के बारे में सोचा? कभी ऐसा लगा कि अब इतना
नाम हो चुका है, अपना प्रकाशन खोलूँगा, किताब बिक जाएगी बहुत आसानी से?”
जो जवाब मैंने दिया वो सवाल से बिलकुल जुदा था। सवाल खुद छापने के बारे में
था, मैं छपवाने की दुश्वारियाँ गिनाने लगा। कहा, ‘मैं बहुत जरुरतमन्द हूँ प्रकाशक का।
प्रकाशक नहीं मिलता। चौतरफा नाउम्मीदी का दौर आ गया है’।
सवाल: “कभी इस द्वन्द्व में फँसते हैं कि जो आपने बोला कि जिसके पास
पैसा है वो दे रहा है, जिसके पास नहीं हैँ वो नहीं दे सकता! कभी इस द्वन्द्व में
फंसे हैं नावल देते हुए कि पैसा लूँ या न लूँ?”
जवाब कुछ और ही दिया। उन प्रकाशकों के नाम गिनाने शुरू कर दिए जिन्होंने मेरी
किताब छाप के मुझे पैसा न दिया। उजरत को लेकर सवाल वर्तमान के बारे में था, भविष्य
के बारे में था, मैं अतीत में पहुँच गया।
साहबान, गुजारिश है कि उपरोक्त से आप ये नतीजा न निकालें कि सभी कुछ
डिज़ास्टर था। लंबा इंटरव्यू था इसलिए ढेर ऐसे सवाल थे – पल्ले न पड़े सवालों से कहीं
ज्यादा ऐसे सवाल थे – जिन के मैंने काबिल, जहीन, टु-दि-प्वायंट जवाब दिए। आप रहम
वाला रुख अख्तियार करें, ये नतीजा न निकलें कि उपरोक्त आपके लेखक के साथ बहरेपन
की वजह से बुरी बीती का लेखा जोखा है। ऐसे शख्स को मूढ़ समझ लिया जाना क्या बड़ी
बात है जो दानिशमंद हो लेकिन खुद को साबित कर के न दिखा पाए - ऐन वैसे ही जैसे
कानूनी जुबान में कहा जाता है कि जब तक आप खुद को बेगुनाह साबित न कर दिखाएं तब
तक आप गुनहगार हैं।
निवेदन है कि इस आलेख को ठीक से समझने के लिए मेरे पाठक ‘संगत’ का मेरा
इंटरव्यू देखने की जरूरत महसूस कर सकते हैं लेकिन क्या हर्ज है, कभी भी देखें, यू ट्यूब
पर उपलब्ध है, और फिर उपरोक्त को पढ़ कर पूरी तरह से उसका रसस्वादन करें।
In : Memoirs