'हीराफेरी' के 'लेखकीय' ने मेरे पाठकों को उपन्यास से भी ज्यादा प्रभावित किया । कितने ही पाठकों ने कबूल किया कि वो लेखकीय पढ़ने से पहले उन्हें वसीयत का कभी ख्याल ही नहीं आया था और उन्होंने लेखकीय पढ़ने के बाद ही वसीयत की अहमियत को समझा और वसीयत की ।
लगभग हर पाठक ने कबूल किया कि उपन्यास के 75  पेज पढ़ चुकने तक उन्हें जीतसिंह का ख़याल तक नहीं आया था । उन पेजों की रफ्तार इतनी धुआंधार थी कि याद ही न रहा कि जीतसिंह का उपन्यास पढ़ रहे थे ।
जब हीरो की नॉवेल में लेट एंट्री पाते हैं तो मेरे पाठक उस की सदा शिकायत करते हैं ।
मेरे एक नियमित पाठक ने मुझे ये बताकर मेरा ज्ञानवर्धन किया कि वर्तमान में गाड़ी नंबर से नाम पता जानने हेतु आरटीओ जाने की जरूरत नहीं होती, फोन में ही app है car info करके जिससे सरकारी डाटाबेस जुड़ा है और जहां से मनचाहा परिणाम प्राप्त किया जा सकता है ।
मैं कबूल करता हूं कि इस व्यवस्था की मेरे को कतई कोई खबर नहीं थी ।
मेरे लगभग तमाम सुबुद्ध पाठकों ने मेरी इस बड़ी चूक की तरफ मेरा ध्यान आकर्षित किया कि गैंगस्टर अबू सलेम को पुर्तगाल से extradite करा कर भारत लाया गया था, न कि फिलीपींस से जैसा कि उपन्यास में दर्शाया गया है ।
मैं अपनी इस चूक पर तहेदिल से शर्मिंदा हूं और हैरान हूं कि ये चूक कैसे हुई जब कि मैंने फर्नांडो का खास तौर से पुर्तगाली बैकग्राउंड इसीलिये चित्रित किया था कि मैं अबू सलेम की extradition उसके लिए दृष्टांत बनाना चाहता था ।
अब उपन्यास के प्रति पाठकों की राय मुलाहजा फरमाइये:
- गोंदिया के शरद कुमार दुबे को 'हीराफेरी' की रफ्तार बुलेट ट्रेन जैसी लगी, दिल 'वाह वाह' के अलावा कुछ न कह सका । उपन्यास का नाम उन्हें इतना सटीक लगा कि कहते हैं कि इसके अलावा उपन्यास का कोई दूसरा नाम हो ही नहीं सकता था । जीते की एंट्री पर ही उन्होंने उपन्यास को सौ में से 101 नंबर दे डाले  । कहते हैं उन्हें नहीं लगता कि किसी पाठक के दिमाग में ये आया होगा कि गेटवे ऑफ इंडिया पर जोकम लपक कर जिस टैक्सी में बैठा, उस का ड्राइवर अपना जीतसिंह होगा  ।
अमर नायक ने उन्हें जीतसिंह से भी ज्यादा प्रभावित किया, उस की दबंगई, उसका स्टाइल, उसकी बॉस वाली सोच, सबने मन मोह लिया, ख़ास तौर से क्लाइमेक्स में तो उस का जलवा देखते ही बनता था ।
अपने संक्षिप्त रोल में मिश्री उन्हें यादगार लगी ।
- पंचकूला के पेशे से अध्यापक मुश्ताक अली को ‘हीराफेरी’ इतना तेजरफ्तार लगा, कहानी इतनी कसी हुई लगी, कि एक बार पढ़ना शुरू किया तो तड़के 3 बजे खत्म करके ही रुके । उन्हें जीतसिंह और गाइलो की जोड़ी पूरी फॉर्म में लगी, यूँ लगा मानो सचिन तेंदुलकर और सौरव गांगुली की जोड़ी क्रीज़ पर हो, कई बार गांगुली (गाइलो) सचिन (जीतसिंह) से ज्यादा स्ट्राइक लेता नजर आया  । उपन्यास का अंत उन्हें बिल्कुल व्यवहारिक लगा हालांकि जीतसिंह को सिर्फ एक लाख रुपया मिलना थोड़ा द्रवित कर गया पर ये ही अंत ज्यादा व्यवहारिक था  । आखिरी क्षणों में अमर नायक उन्हें पूरे जलाल पर लगा । कोई कमी तो ढूंढे न मिली फिर भी एक वो प्रसंग थोड़ा नागवार गुजरा जब खालिद जीतसिंह को दुत्कार के खदेड़ देता है  । जीतसिंह के गाइलो के साथ आम आदमियों की मजबूरियों के मोनोलॉग ने तो कहते हैं कि उनके आंसू निकाल दिये । उन्होंने उस अकेले मोनोलॉग को सवा लाख के बराबर बताया और बकौल उन, कई बार पढ़ चुकने के बाद भी मन न भरा, फिर पढ़ा ।
- राघवेन्द्र सिंह बाजरिया मेल कहते हैं कि 'हीराफेरी' पढ़ कर मन तृप्त हुआ, 75वें पेज पर जीतसिंह की एंट्री जबरदस्त लगी जो अगर जल्दी होती तो शायद इतना प्रभाव न छोड़ती । सारे पात्रों के चरित्र उन्हें खूबसूरती से गढ़े हुए लगे । जीते के गाइलो से मध्यम वर्ग से संबंधित समस्याओं पर आधारित संवाद ने उन के मन को उद्वेलित किया । जीते की स्टेबिलिटी की तलाश उन्हें बिल्कुल प्रासंगिक लगी ।
- हाथरस के सुनीत शर्मा ने शाम का चाय पानी, फिर भोजन, फिर बच्चों का होमवर्क मिस कर के 'हीराफेरी' एक ही बैठक में पढ़ा । कहते हैं कि उपन्यास पढ़ चुकने के बाद जो शब्द उन के दिमाग में आया वो हाथरस का टिपीकल शब्द है जो ताजमहल की भव्यता, मोनालिसा की मुस्कान और बुर्ज खलीफा की ऊंचाई को एक ही शब्द में निबटा देता है, वो है - कर्रा ।
उन के खुद के शब्दों में :
साहब बहुत कर्रा लिख दिया है । इस बार न कोई ज्यादा मारकाट, न कोई ज्यादा हिंसक घटना, न कोई अनर्गल दृश्य, बस एक बहुत तेजरफ्तार एक्शन ड्रामा जो सांस नहीं लेने देता ।
मेरे ख़याल से जीतसिंह को अब कुछ जीतना चाहिए क्योंकि वक्त हर किसी का बदलता है, चाहे वो जीतसिंह हो, चाहे हारसिंह । अत: जीतसिंह को जीत दिलवाएं ।
- कानपुर के अंकुर मिश्रा - जो कि पेशे से बैंक मैनेजर हैं - ने उपन्यास को बेजोड़, अनमोल, तेजरफ्तार, एक ही बैठक में पठनीय जैसे विशेषणों से नवाजा । 'हीराफेरी' मिश्राजी को 'खोटा सिक्का'  और 'जुर्रत' के बराबर रोचक लगा ।
- गोंदिया के वेंकटेश कहते हैं कि 'हीराफेरी' पढ़कर मन 'आनंद से सरोबार हो गया' । कभी कुछ न जीतने वाले जीते के हिस्से में भी इस बार - ऊँट के मुंह में जीरा जितना ही सही - कुछ आया देखकर अच्छा लगा । कहानी उन्हें प्रिडिक्टिबल लगने लगी थी लेकिन अंत के करीब अमर नायक के जरिये जिस तरह से इंकलाबी तब्दीली पेश आयी वो चौंकाने वाली थी । बीच में अमर नायक उन्हें प्यादों के भरोसे काम कराने वाले लीडर से ज्यादा कुछ न लगा लेकिन आखिर में उसने साबित कर दिया कि अच्छा डॉन बनने वाले सारे गुण उसमें कूट कूट कर भरे थे ।
गाइलो की जीते के लिए वफादारी और समर्पण ने हमेशा की तरह मन द्रवित किया ।
- बदाऊं के मोहम्मद इमरान अंसारी को नावेल पूरी तरह से अपने टाइटल को चरितार्थ करता लगा एवं कहानी कसी हुई और थ्रिल से भरपूर लगी । अंत में हीरों के साथ हीराफेरी चौंका देने वाली लगी । मुम्बइया टपोरी भाषा ने उन का भरपूर मनोरंजन किया । मिश्री का किरदार खासतौर से असरदार लगा लेकिन जीते का बहराम जी के द्वारे जाना सरासर नागवार गुजरा । जीते का गाइलो पर अब ज्यादा ही निर्भर रहने लगना भी शिकायत का बायस लगा । जमा, उन्होंने उपन्यास में डकैती की थ्रिल को बहुत मिस किया ।

- पराग डिमरी की राय में 'हीराफेरी' में घटनाएं बहुत तेजी से घटित हुईं और दिलचस्प अंदाज से हुईं । बकौल उन के:
उपन्यास के सभी पात्रों के चरित्रचित्रण पर ख़ासा ध्यान दिया गया है  और उपन्यास किसी एक नायक के ऊपर केंद्रित नहीं है । महिला किरदार न के बराबर है इसलिये नारी मुक्ति के प्रवक्ता इसे पुरुष वर्चस्ववादी उपन्यास भी कह सकते हैं । अमर नायक ने फालतू के खून खराबे से परहेज करने की बात कह के दिल जीत लिया । आपने मुंबई और मुंबईवासियों की जीवन शैली का बाकमाल वर्णन किया है जब कि मेरी जानकारी में मुंबई में आपका बहुत आना जाना नहीं हुआ है । मेरी राय में आप को वैसे ही मुंबई शीर्ष नागरिक का सम्मान मिलना चाहिये जैसे यश चोपड़ा को स्विट्ज़रलैंड सरकार से मिला था ।
- मोहाली के गुरप्रीत सिंह ने 'हीराफेरी' और उसके इंग्लिश वर्शन ‘Diamonds Are For All’ दोनों को एक साथ पढ़ा । यानी बारी बारी दोनों का एक एक चैप्टर पढ़ते । विषय वस्तु का तुलनात्मक अध्ययन किया । उनको दोनों वर्शन खूब पसंद आये और उन की राय में किसी स्थापित किरदार से मुक्त थ्रिलर उपन्यास मुझे इंग्लिश में और लिखने चाहियें । अलबत्ता मुम्बइया जुबान का जो तड़का 'हीराफेरी' को लगा वो इंग्लिश वर्शन से गायब पाया गया जब कि वो तड़का ही 'हीराफेरी'  का मसालेदार, इकसठ माल था ।
फरमाते हैं कि ‘हीराफेरी’ को पढ़कर उन की इस धारणा को बल मिला कि मेरा बेस्ट अंडरवर्ल्ड स्टोरी में ही बाहर आता है, चाहे वो 'गवाही' हो, 'मौत का आतंक' हो, 'तीसरा कौन' हो या 'हीराफेरी' हो ।
- बटाला के प्रोफेसर रवीन्द्र जोशी को 'हीराफेरी' STAID, STRAIGHT और SIMPLISTIC लगा । मुम्बइया डायलेक्ट के इस्तेमाल और मुंबई की सड़कों के मेरे विस्तृत ज्ञान से वो खास तौर से प्रभावित हुए । क्लाइमेक्स उन्हें ऐसा लगा जैसे की कि उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी । मिश्री सोने पर सुहागा लगी । उपन्यास को उन्होंने अत्यंत पठनीय करार दिया लेकिन कहते हैं कि 'लेखकीय' ने तो उपन्यास से कई गुणा ज्यादा कीमत वसूल करवा दी ।
- अमित दुबे ने 'हीराफेरी' अपने ढाका प्रवास के दौरान पढ़ा । नावेल के सम्मोहन ने उन्हें ऐसा बांधा कि, बकौल उन के, उन्होंने उसे वहां की अपनी मीटिंग्स के बीच में हासिल टाइम में और अपनी लोकल रोड जरनीज के दौरान पढ़ा । उन्हें जीता विमल की राह पकड़ता लगा, हालांकि उसे विमल सरीखा ग्रैंड कैनवस उपलब्ध नहीं ।
- दिल्ली के राहुल शर्मा ने 'हीराफेरी' को 'गजब का नावेल' करार दिया और उसके लेखकीय को केक पर चेरी का दर्जा दिया । अलबत्ता एक बात उन्हें खली । कहते हैं जीता अब दुनिया के तौर-तरीके सीखने लग गया है, उसे उसी के हिसाब से ईनाम मिलना चाहिये था जो कि न मिला ।
- वाराणसी के विकास अग्रवाल ने 'हीराफेरी' में कन्टीन्यूटी की कई गलतियां पायीं लेकिन फिर भी कहानी उन्हें बढ़िया और तेजरफ्तार लगी । कुल मिला कर उपन्यास को उन्होंने 'मजेदार' ठहराया लेकिन ऐतराज जताया कि जीता अब निरीह प्राणी बन गया है, इस कहानी में वही कुछ दोहराया गया है जो कि पिछले नावेल में था; मसलन बहराम जी की तरह अमर नायक ने भी जीते को ईनाम दिया ।
- नीरज झा फरमाते हैं कि 'हीराफेरी' उन्होंने एक ही बैठक में पढ़ा, रात के तीन बजे जब पढ़कर खत्म किया तो उन के मुंह से एक ही उद्गार निकला:
What a novel!
नावेल उन्हें थ्रिलर लगा, मर्डर मिस्ट्री लगा और इमोशनल रोलरकोस्टर लगा । उन के अपने शब्दों में:
It was a compelling read from the very first page and intrigued till the last. The icing on the cake is the climax, one of the best that you have written in the recent times and that left me amazed. People who had in past complained that Jeeta looks an understudy of Vimal are in for a big surprise here. This perhaps is Jeeta’s best till date. This is a novel readers are going to remember for a long time.
- चंद्र कुमार को ‘हीराफेरी’ की तारीफ में शब्द ढूंढना मुश्किल लगा । उन्हें उपन्यास बहुत ही बढ़िया, शानदार, जानदार, अद्भुत लगा, खास कर जो आखिर में ट्विस्ट आया वो बहुत भाया, किसी जासूसी नावेल को पढ़ने जैसा अहसास हुआ । (!) ये लाइन उन्हें खास तौर से पसंद आयी:
जिस से लगन लगी हो, उसके बारे में न बुरा सोचा जाता है और न बुरा बोला जाता है ।
- मनु पंधेर का कहना है कि 'हीराफेरी' में जीतसिंह नहीं होना चाहिये था । मैं उपन्यास को बिना स्टॉक कैरक्टर्स के बतौर थ्रिलर लिखता तो जीतसिंह की जगह किसी ज्यादा श्याणे मुंबई टैक्सी ड्राइवर ने ली होती जो कि कहानी को ज्यादा विश्वसनीय बनाता । वो जीतसिंह स्टोरी क्या जिस में वॉल्टबस्टिंग, सेफ क्रैकिंग न हो ।
उपरोक्त राय के बावजूद कुल जमा पंधेर साहब को उपन्यास पसंद आया, कहानी 'फुल्ली रोस्ट' और 'वैल नैरेटिड' लगी ।
- भोपाल के विशाल सक्सेना को 'हीराफेरी' खालिस, असली हीरा लगा । कहते हैं तेजरफ्तार कथानक ने रोचकता के साथ अंत तक बांधे रखा । अंत में हीरों को लेकर कहानी में जो ट्विस्ट आयी, उसने उपन्यास को और अधिक रोचक बना दिया । गाइलो का किरदार हमेशा की तरह यादगार रहा । कहते हैं गाइलो जीते के लिये वागले, तुकाराम, इरफ़ान, शोहाब की तरह हो गया है । मिश्री ने एक बार फिर जीत लिया । कुल मिलाकर उपन्यास बहुत पसंद आया लेकिन शिकायत भी रही कि उपन्यास जीतसिंह के पिछले उपन्यासों के मुकाबले में कमजोर लगा ।
- महेन्द्र सिंह को भी जीतसिंह से शिकायत हुई और कहानी हल्की लगी । विभिन्न लोगों द्वारा हीरों की चेज का ड्रामा उन के ख़याल से वायलेंट होना चाहिये था, खूंरेजी के वाकयात से लबरेज होना चाहिये था जब कि जीते को लाचार और डरपोक चित्रित किया गया जो कि उसकी 'जुर्रत' और 'मिडनाइट क्लब' वाली छवि से बिल्कुल मेल नहीं खाता । उसके एनिमल इंस्टिंक्ट की कोई झलक महेन्द्र सिंह को 'हीराफेरी' में न दिखाई दी ।
उन्होंने प्लाट को अच्छा बताया लेकिन उपन्यास को BOTTOM MOST CATEGORY का बताया ।
उपरोक्त दोनों परस्पर विरोधी बातें हैं, कैसे हो सकती हैं, महेंद्र सिंह ही बेहतर जानते हैं ।
- नयी दिल्ली के अतुल महरा ने 'हीराफेरी' लेट नाइट पढ़ना शुरु किया और सुबह के साढ़े चार बजे तक निरंतर पढ़ा । कहते हैं इस एक बात को ही उपन्यास का समुचित फीडबैक माना जाना चाहिये । कहना न होगा कि उपन्यास उन्हें अत्यंत तेजरफ्तार, ऐसा कि, बकौल उन के, सर खुजाने का वक्त न मिला ।
उपन्यास को उन्होंने 10 में से 9.5 नंबरों से पास किया ।
- सुनील भाटिया को लगता है कि मुझे जीतसिंह से कुछ ज्यादा ही मोह हो गया है । 'हीराफेरी' पढ़ कर उन्हें ऐसा लगा जैसे वो चुसक चुसक कर, मजे ले ले कर मदिरापान कर रहा हो और सुबह सिर पकड़ कर अपने आप को कोसने लगा हो । कहते हैं आखिर में जीते को हारा दिखा कर मैं स्वयं अपने से हार गया ।
भाटिया साहब कहते हैं कि मैंने आखिर में जो नकली हीरों का तड़का लगाया, वही मेरे इस कारनामे को बचा गया वर्ना यह औसत उपन्यास से भी नीचे जाता ।
बहरहाल उन्होंने 'हीराफेरी' को फर्स्ट डिवीजन में पास किया ।
- भिवंडी के आशीष शाह ने भी 'हीराफ़ेरी' को जीतसिंह का पतन करार दिया, मैंने एक टॉप के लॉक बस्टर को 'कुछ नहीं' की श्रेणी में ला कर खड़ा कर दिया जिसे दो टुच्चे मवालियों से हर बार छुपना या भागना पड़ा । उसका खालिद के सामने बहराम जी के गैंग में शामिल होने के लिये भीख माँगना तो बिल्कुल भी हजम न हुआ ।
यहां शाह साहब की ये खामखयाली दूर करना जरूरी है कि जीता अंडरवर्ल्ड में बड़ा नाम बन गया है, बड़ा नाम पा गया है । अंडरवर्ल्ड में उसकी पूछ अपने हुनर की वजह से है, न कि भाईगिरी की वजह से । लिहाजा कैसे कथित मामूली प्यादे उसे अंडरवर्ल्ड की बड़ी हस्ती के तौर पर जानते और उस से खौफ खाते ! वस्तुत: जीता आम आदमी है और आम आदमी की जिंदगी के हासिल भी आम ही होते हैं ।
- दिल्ली के हसन अल्मास ने उपन्यास के हिंदी, इंग्लिश दोनों वर्शन पढ़े और उन्हें हिंदी वर्शन में वसीयत संबंधी लेखकीय सब से ज्यादा पसंद आया । उन की राय है कि मेरे तमाम लेखकीय पुस्तकाकार में उपलब्ध होने चाहियें । उपन्यास को हसन साहब ने 'रेयर जेम', 'क्लासिक' 'रोलर कोस्टर राइड' जैसे अलंकरणों से नवाजा । जीतसिंह का अपनी औकात बनाने के बारे में सोचना उन के दिल को छू गया । 40 करोड़ के हीरों पर काबिज के पल्ले आखिर एक लाख रुपया पड़ा, इस बात ने उन्हें बहुत आनंदित किया ।
उन्होंने 'हीराफेरी' को दस में से दस नंबर दिये ।
- विजय कुमार पांचाल को 'हीराफेरी' में जो बात हद से ज्यादा नागवार गुजरी, वो ये थी कि जीता क्लाइमेक्स से गायब था । सारा क्लाइमेक्स मैंने एक डॉन के हाथ में दे दिया जिसने शरलॉक होम्ज की तरह अपने ऑफिस में बैठे बैठे ही सारा केस सुलझा लिया और हीरो बाहर बेंच पर बैठा रहा ।
उन की राय में 'हीराफेरी' जीतसिंह सीरीज का उपन्यास होना ही नहीं चाहिये था, स्वतंत्र थ्रिलर होना चाहिये था ।
- शाहदरा, दिल्ली के मेरे नियमित पाठक नारायण सिंह कहते हैं कि उन्हें दूर दूर तक इमकान नहीं था कि उपन्यास आखिर में जाकर ऐसा मोड़ लेगा । उन्हें सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि आखिर में नकली हीरों का वजूद खड़ा होगा और कहानी में ऐसा मोड़ आएगा जैसा जीतसिंह के पहले किसी उपन्यास में कभी नहीं आया था । 296 पेज से क्लाइमेक्स का ऐसा दौर शुरु हुआ कि फिर सांस रुक गयी । उपन्यास पढ़ते वक्त हर पल उन्हें ऐसा लगा कि जीते के पास बस एक वो ही हीरा बचेगा जो अलीशा वाज के घर से लौटते समय उसने निकाल लिया था लेकिन कमाल हो गया जब इतने सारे धमाकों से निकलने के बाद उसके हाथ बस एक लाख रुपया आया तो वो भी बड़े डॉन की दयानतदारी की वजह से ।
ये बात भी उन्हें बाकमाल लगी कि 75 पेज तक जीतसिंह का जिक्र तो क्या, नाम तक न आया । जोकम के टैक्सी में जा बैठने तक भी उन्हें न सूझा कि टैक्सी ड्राइवर जीतसिंह होगा । जब ये बात जाहिर हुई तो पढ़ना रोककर उन्हें अपनी हड़बड़ी को काबू में करना पड़ा । टैक्सी स्टैंड पर जीते का ड्रामा, होटल के कम्पाउंड का प्रसंग, गाइलो की खोली में मवालियों को थामने का प्रसंग, मिश्री के फ्लैट का प्रसंग, सब उन्हें बाकमाल लगे ।
- आजकल कोलकाता निवासी संदीप शुक्ला को ‘हीराफेरी’ एक बार बहुत नहीं, 3 बार 'बहुत' - बहुत, बहुत, बहुत - पसंद आया जिस में आखिर जीते को सूई की नोक के बराबर हक मिल ही गया । लिखते हैं:
आप वैसे भी माफिया - पुलिस - नेता गंठजोड़ की बाबत लिखने में हमेशा गजब ढाते हैं । मैं हमेशा कहता हूँ मेरे लिये असली हीरो आप हैं न कि आपके पात्र । इसका उदाहरण फिर मिला जब कि जीतसिंह की एंट्री पेज नंबर 75 पर हुई और तब मुझे याद आया कि अरे, ये तो जीतसिंह सीरीज है ! पहली पंक्ति से कहानी ने जो समां बांधा, वो आख़िरी पंक्ति तक बरकरार रहा जादू की तरह । जैसा मवालियों का सटीक चित्रण आप करते हैं, उससे शक होता है कि कहीं आप भी तो भाई ही नहीं जो कि बायोग्राफिकल बातें लिखते हैं ।
- नागौर के डॉक्टर राजेश पराशर के अपने शब्दों में:
'हीराफेरी' पढ़कर लगा कि आपने ये उपन्यास बहुत मनोयोग से लिखा है । इस उम्र में (!) आप की लेखनी का जद्दोजलाल देखकर दिल बागबाग हो गया । वास्तविकता सरीखी साधारण सी कहानी से भरपूर मनोरंजन करना कोई आप से सीखे । उपन्यास बहुत बहुत पसंद आया ।
कहानी के आखिरी वर्कों में अमर नायक के प्रसंग ने चकित कर दिया । साबित हुआ कि बॉस बॉस ही होता है, प्यादे उसकी बराबरी नहीं कर सकते । यूं हिंदी जासूसी लेखकों की कतार में टॉप बॉस आप ही हैं । आखिर में भरपूर मारामारी के बावजूद जीतसिंह के हाथ महज एक लाख रुपया आना द्रवित कर गया । पर अंत स्वाभाविक था ।
- कोलकाता के आनंद कुमार सिंह को 'हमेशा की तरह' उपन्यास तेजरफ्तार और शानदार लगा । कहते हैं उपन्यास से पहले लेखकीय में ही पूरे पैसे वसूल हो गये । उपन्यास में उन्हें एक बात खटकी कि अंत में जीतसिंह के लिये कुछ नहीं था, उसे हटाकर कोई और, नॉनसीरियल किरदार रखा जाता तो थ्रिलर बन जाता । उपन्यास का हीरो तो अमर नायक दिख रहा था । विराट पंड्या साइड हीरो लग रहा था । और जीतसिंह उन्हें साइड का साइड हीरो प्रतीत हुआ । और तो और गाइलो का रोल भी जीतसिंह से बीस ही था ।  कहते हैं कि कहानी कहने के मेरे अंदाज ने इन कमियों को बाधक न बनने दिया ।
- लखनऊ के मदन मोहन अवस्थी ने 'हीराफेरी' को बहुत सुंदर प्रस्तुति करार दिया । कहते हैं पहली बार जीतसिंह ने पूरे उपन्यास में मार नहीं खाई, पहली बार वो किसी के कहर का बेतहाशा शिकार नहीं हुआ । उन्हें लगता है जीतसिंह की किस्मत के सितारे बदलने लगे हैं और मिश्री या उस जैसी प्यारी या प्यार करने वाली औरत के साथ उस की जिंदगी की डोर बंध सकती है । बहरहाल थोड़ी ही सही, 'हीराफेरी' में जीता जीत हासिल कर तो गया ।
- योगेश तनेजा को 'हीराफेरी' में कोई कमी न दिखाई दी और शीर्षक निहायत उम्दा और सटीक लगा । उपन्यास में मुम्बइया भाषा का तड़का उन्हें खूब जंचा, कहते हैं किसी मुम्बइया फिल्म में भी उन्होंने ऐसी मुम्बइया भाषा नहीं सुनी । जमा, उन की राय है:
अपुन अभी इतनाइच बोलना मांगता है कि 'मुम्बइया शब्दावली' शुरु के वरकों में देने का था, भीड़ू ।
- सांगरिया (राजस्थान) के ओपी चौहान को 'हीराफेरी' ने पूरी तरह से निराश किया । कहते हैं उपन्यास बिल्कुल मनोरंजक नहीं था, बल्कि बोर था । कोई कहानी नहीं, कोई रोचक संवाद नहीं, अमर नायक को छोड़ कर कोई प्रभावशाली किरदार नहीं । जीते ने कुछ भी न किया । अंत में फिर दोहराते हैं कि उपन्यास बिल्कुल पसंद नहीं आया और आशा प्रकट करते हैं कि अगली बार मैं बेहतर कुछ लिखूंगा ।
- लखनऊ के अभिषेक अभिलाष मिश्रा को 'हीराफेरी' बहुत पसंद आया, इतना कि हालिया उपन्यास 'इंसाफ दो' से जितनी नाउम्मीदी उन्हें हुई थी, वो तमाम की तमाम दूर हो गयी । 'हीराफेरी' को उन्होंने 'जबरदस्त', 'मार्वलस', 'मास्टरपीस', 'जैम ऑफ ए नावेल' जैसे अलंकरणों से नवाजा । जीता उन्हें 'हीराफेरी' में अपने ही बनाये पिछले कीर्तिमानों को ध्वस्त करता लगा । कहानी, उस की अदायगी और रवानगी, डायलॉग जैसी हर बात उन्हें चुस्त, दुरुस्त, लाजवाब लगी, इतनी कि उन्होंने मुझे राय दी है कि मैं हर साल 2-3 उपन्यास जीते के लिखा करूं । और प्रशंसा के लिये उनके पास शब्द नहीं हैं इसलिए उन्होंने 'हीराफेरी' को पांच में से साढ़े चार नंबर दिए, शब्द होते तो मुझे यकीन है कि जो आधा नंबर उन्होंने होल्ड कर लिया वो भी मुझे हासिल हो जाता ।
- मेरठ डॉक्टर कँवल किशोर शर्मा को 'हीराफेरी' खूब पसंद आया - इतना कि उपन्यास पढ़ कर एक ओर रख चुकने के बाद भी वो उसकी जकड़न खुद पर महसूस करते रहे । उपन्यास का विस्तृत क्लाइमेक्स उन्हें ख़ास तौर से पसंद आया लेकिन आगाज उससे भी शानदार लगा हालांकि शुरु में उन्हें उपन्यास में जीतसिंह की लेट एंट्री खलने लगी थी, पर आखिर जब वो आया तो तमाम शिकायतें दूर हो गयीं । 'और एंट्री भी ऐसी' - उन के अपने शब्दों में - 'कि मुझे अहसास तक न हुआ कि जिस टैक्सी में फर्नांडो सवार हुआ था, उस का चालक जीतसिंह होगा' ।
- उदयपुर के संजय कुमार ने 'हीराफेरी' को उम्दा और रोमांचक उपन्यास करार दिया लेकिन साथ में शिकायत भी की कि अंत पंत जीता विमल की परछाई ही लगता था । बहरहाल उन्होंने मेरे अंदाजेबयां की भरपूर तारीफ की जो उन्हें किसी भी नावेल को बीच में छोड़ कर उठने नहीं देती । उन्होंने जीतसिंह और विमल सीरीज को 'फास्ट एंड फ्यूरियस' की तरह फुल स्पीड एडवेंचर माना । और मुम्बइया भाषा तो 'बोले तो साला एकदम झकास' ।
- शाहजहांपुर के विपिन कुमार सक्सेना को भी 'हीराफेरी' का हीरो अमर नायक ही लगा लेकिन उन्हें विजय पांचाल की तरह इस बात से कोई शिकायत न हुई । उलटे उन्हें क्लाइमेक्स का अमर नायक पर केंद्रित होना ज्यादा उम्दा और यथार्थपरक लगा । बतौर उनके डॉन डॉन ही होता है जो कि जीता नहीं हो सकता । नावेल उन्हें लाजवाब लगा जो कि कहीं बोर नहीं करता ।
- 'हीराफेरी' के बारे में भोपाल के डी के गुप्ता की क्या राय होगी, वो इसी बात से उजागर है कि उन्होंने उपन्यास को लगातार 3 बार पढ़ा । यानी उपन्यास के आखिरी पृष्ठ तक पहुँचते ही उसे फिर से पढ़ना शुरु कर दिया, फिर पढ़ना शुरु कर दिया । खुद उन के शब्दों में:
‘Heera-feri’ is a thrilling experience. Every page is full of entertainment and the end is fantastic. I am short of words to express my feelings.
- डॉक्टर गिरीश श्रीवास्तव ने 'हीराफेरी' के प्रति अपने उदगार प्रकट करते पत्र में सबसे पहले उपन्यास के टाइटल की तारीफ की । कहते हैं उपन्यास पढ़ चुकने के बाद उन्हें बड़ी शिद्दत से अहसास हुआ कि 'हीराफेरी' से बेहतर उपन्यास का कोई दूसरा नाम हो ही नहीं सकता था । 'हीरों की हेराफेरी' की बेहतरीन तर्जुमानी 'हीराफेरी' नाम करता था । बहरहाल उपन्यास उन्हें अत्यंत यथार्थपरक और तेजरफ्तार लगा । मुंबई भाषा और वहां की भाईगिरी उन्हें ख़ास तौर से रोचक लगी । जीते के हाथ में रकम के नाम पर फिर चिड़िया का चुग्गा ही लगना उन्हें बहुत भाया और जीते के किरदार की कंटीन्यूटी के अनुरूप लगा । लेकिन उन्हें जीते का खालिद के पास जाना कतई मंजूर न हुआ । सवाल करते हैं कि जब जीते की अंडरवर्ल्ड में लौटने की मंशा ही न थी तो क्यों वो बहराम जी की सरपरस्ती का तालिब था ?
- बकौल रांची के संजीव कुमार, वो मेरे बहुत पुराने पाठक हैं इसलिए मुझे ये राय देने का हक रखते हैं कि मैं अपने खुद के पुराने उपन्यास पढ़ा करूं, यूं मुझे पहले के पाठक और अब के पाठक में अंतर पता चलेगा और पता चलेगा कि मेरे अब के उपन्यासों में से थ्रिल, मिस्ट्री, सस्पेंस सब गायब होने लगे हैं । इसकी ताजा मिसाल उन्होंने 'हीराफेरी' के हवाले से दी जिस में मैंने 'सिर्फ कागज़ ही रंगे हैं । कुछ है ही नहीं इस में' ।
अंत में उन्होंने घोषणा की कि भविष्य में उन्हें मेरे पुराने उपन्यासों से ही संतुष्ट होना पड़ेगा !
दाता ! इतनी ना उम्मीदी !
- अहमदाबाद के शिव कुमार चेचानी को 'हीराफेरी’ की कहानी शुरुआत में थोड़ी धीमी लगी लेकिन एक बार जो स्पीड पकड़ी तो पता ही न चला कि उपन्यास कब खत्म हुआ । सेकंड हाफ तो - कहते हैं - अफलातून था, मजा आ गया !
खामियों के खाते में उन्होंने दर्ज किया कि कहानी में जीतसिंह की जरूरत ही नहीं थी, बिना जीतसिंह 'हीराफेरी' कहीं ज्यादा उम्दा थ्रिलर बन सकता था । जीते की बीती जिंदगी को बार बार दोहराया जाना भी उन्हें अखरा ।
- नयी दिल्ली के विशी सिन्हा ने इसे जीतसिंह के उपन्यासों की खूबी करार दिया कि वो नायक प्रधान नहीं, घटना प्रधान होते हैं । बकौल उन के, 'हीराफेरी' में भी घटनाएं तेजी से घटती हैं और कहानी न सिर्फ रफ्तार बनाये रखती है, बल्कि आखिरी पन्नों तक सस्पेंस भी बरकरार रखती है । जीतसिंह उन्हें कमजोर नजर आया लेकिन सब से ज्यादा अमर नायक ने प्रभावित किया जो कि आखिर में उपन्यास का असली नायक बन कर उभरता है । उपन्यास में थ्रिल और सस्पेंस का तड़का उन्हें बाकमाल लगा और वैसा ही बाकमाल मानवीय संबंधों का चित्रण और कथोकथन लगा । उन्हें इस बात का गिला रहा कि अमर नायक गैंग के इनसाइडर की पहचान आखिर तक न हुई ।
- सीतापुर के महेश सिंह को 'हीराफेरी' खूब पसंद आया लेकिन उस में समाहित जीते का दीन हीन रूप पसंद न आया । उन की राय में जीते की अब तरक्की होनी चाहिए जबकि वस्तुत: उसका डिमोशन हो रहा है । कहते हैं कि जीते ने तो कुछ किया ही नहीं हीराफेरी में, उसका जो जलाल कायम हो चुका है, हीराफेरी में मैं उसे कायम रखने में कतई नाकाम रहा हूं । उन की राय है कि जीते को अब लॉन्ग लीव पर रवाना किये जाने का वक्त आ गया है ।
- सागर खत्री को उपन्यास बेहद पसंद आया, उसकी मुम्बइया भाषा का उन्होंने भरपूर लुत्फ उठाया और उपन्यास के किरदारों ने उन्हें मुंबई की बढ़िया सैर कराई ।
हीराफेरी को उन्होंने 100 में से 100 नंबर दिये ।
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