गोवा गलाटा पाठकों की राय में

जालंधर के जोधा मिन्हास को गोवा गलाटा बहुत सुन्दर उपन्यास लगा और वो उपन्यास की तेज रफ्तार से खास तौर से प्रभावित हुए । बकौल उन के, उपन्यास उन्होंने पूरी रात में बहुत ही आनंद उठाते हुए पढ़ा और पढने की रफ्तार जानबूझ कर धीमी रखी ताकि वो जल्दी खत्म न हो जाये । इसी वजह से अगला दिन उन्होंने पूरे का पूरा सोकर गुजारा ।

मनु बन्धेर ने गोवा गलाटा पूरी तरह से एन्जॉय किया लेकिन ये बात उन्हें दुरुस्त न लगी कि कत्ल के केस की सुनवाई सीधे सैशन कोर्ट में न दर्शाई गयी ।

उज्जैन के राजेश पंथी को गोवा गलाटा बहुत अच्छा लगा लेकिन उनकी राय में जीतसिंह के बिना भी उपन्यास को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था ।

गुरप्रीत सिंह ने गोवा गलाटा को मेरी तरफ से पाठकों को बर्थ डे गिफ्ट करार दिया और उसको मिडनाइट क्लब के समकक्ष रखा । अपनी तेज रफ्तार में उपन्यास उन्हें ‘आज कत्ल होकर रहेगा’ सरीखा लगा । गुरप्रीत सिंह खुद सिविल इंजीनियर हैं इसलिये उन्होंने रोड कंस्ट्रक्शन के सन्दर्भ में उपन्यास में कई विसंगतियां दर्शाई । मसलन एलिवेटेड रोड में स्टील पिलर नहीं लगाए जाते ।

इस सन्दर्भ में सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि रोड कंस्ट्रक्शन का मेरा व्यक्तिगत ज्ञान जीरो है । मैंने जो कुछ लिखा था अखबार की इस बाबत छपी खबरों से पढ़ कर लिखा था । अगर मेरा लिखा गलत है तो जो अख़बार में छपा था वो भी गलत था । बहरहाल इस बाबत ध्यानाकर्षण का गुरप्रीत सिंह का शुक्रिया ।

नेपाल के अमन खान ने गोवा गलाटा एक ही बैठक में पढ़ा और बकौल इनके, ऐसा उनके साथ पहली बार हुआ है । नावल पढ़ते समय उन्हें हर घड़ी डर लगा रहा कि जीतसिंह के साथ अब बुरा हुआ । वो कहते हैं कि जीते की किस्मत का इसलिये कोई भरोसा नहीं क्योंकि उसका बनाने वाला खुद मैं ही उसके साथ नाइंसाफी करता हूं । शायद मुझे इसलिये जीते से जलन होने लगी है क्योंकि वो मेरे बाकी मानसपुत्रों पर (विमल, सुनील, सुधीर, आगाशे वगैरह) पर भारी पड़ने लगा है ।

आखिर में उन्होंने खास तौर से दरखास्त की कि मैं जीते को कभी मरने न दूं ।

दिल्ली के हसन अलमास महबूब को गोवा गलाटा निहायत तेज रफ्तार और ‘वन सिटिंग मैटीरियल’ लगा और उसके डायलॉग्स और चरित्र चित्रण ने उन्हें विशेष रूप से प्रभावित किया । मिश्री और डोलसी को पढ़ कर तो उन्होंने ये तक कह डाला कि कौन कहता है कि मैं बुरी औरतों की बाबत ही लिखता हूं ! लारेंस ब्रागांजा को उन्होंने ‘डिलाइट ऑफ दी स्टोरी’ करार दिया ।

आखिर में उन की पैसा वसूल रेटिंग थी :

दस में से ग्यारह नम्बर ।

अंत में उन्होंने उपन्यास की दो विसंगतियों का जिक्र भी किया ।

एक ये कि सारे नावल में स्थापित था कि जीतसिंह हुलिया छुपाने के लिए दाढ़ी बढ़ा रहा था, यूं आखिर तक उसके चेहरे पर ग्यारह दिन उपज थी, फिर भी दो जगह - पोंडा पहुंचने के बाद शुरु में और बाद में जेल से निकलने से पहले जेल में - उसे शेव करता लिखा गया है ।

हसन जी, ये एक गम्भीर चूक है जिसके लिये मैं दिल से शर्मिंदा हूं । साथ ही वादा करता हूं कि उपन्यास के अगले संस्करण में इसे जरूर-जरूर दुरुस्त कर दूंगा ।

दूसरी गलती उन्होंने ये बताई कि कोर्ट से भागते वक्त उसके पास मोबाइल था जिस पर मिश्री ने उसे कॉल लगाई थी । लेकिन मोबाइल तो गिरफ्तारी के वक्त जब्त हो चुका था ।

इस सन्दर्भ में मेरी प्रार्थना है कि हसन साहब पेज 190 की बॉटम तीन लाइनें दोबारा पढ़ें जहां साफ तौर पर दर्ज है कि जीते का जब्तशुदा सामान उसे लौटा दिया गया था ।

अहमदाबाद के शिव चेचानी को गोवा गलाटा ने कुछ खास मुतमईन नहीं किया । सस्पेंस के नाम पर उपन्यास में उन्होंने कुछ भी न पाया । उन्हें जीतसिंह धीरे-धीरे विमल बनता लगा और उपन्यास की शुरुआत विमल के उपन्यास ‘आज कत्ल होकर रहेगा’ जैसी लगी जो कि उन्हें बहुत अखरा । फिर भी उन्हें गोवा गलाटा ‘कोलाबा कांस्पीरेसी’ और ‘जो लरे दीन के हेत’ से बेहतर लगा ।

जनाब इस लिहाज से कोलाबा कांस्पीरेसी और जो लरे दीन के हेत तो निहायत फिजूल उपन्यास हुए ।

दिल्ली के राजीव रोशन को गोवा गलाटा से कोई शिकायत न हुई । उन्हें उपन्यास की ये बुनियाद पसंद आई कि जीतसिंह को समाज के उस वर्ग से लोहा लेते दिखाया गया जो समाज को अपने इशारे पर नचाने की पुरजोर कोशिश करता रहता है और कामयाब होता है ।

कोर्ट रूम ड्रामा उन्हें अच्छा लगा साथ ही उन्होंने महसूस किया कि कहानी को थोड़ी और लम्बाई दी जानी चाहिये थी । कुछ सम्वादों की लम्बाई अलबत्ता उन्हें अधिक लगी ।

लखनऊ के अभिषेक अभिलाष का कहना है कि गोवा गलाटा के बाद जीते का किरदार धीरे-धीरे इतनी तरक्की कर गया है कि आइन्दा दिनों में हो सकता है कि पाठक और प्रकाशक सिर्फ जीते के उपन्यास लिखने का आग्रह करने लगें । उन्हें अंदेशा है कि जीता कहीं विमल और सुनील को टेकओवर न कर ले ।

उपन्यास उन्होंने एक ही सिटिंग में पढ़ा । कातिल का अंदाजा जल्दी हो जाने के बावजूद उन्हें कथानक जबरदस्त लगा और बकौल उनके, वो चाह कर भी उसमें कोई खामी न निकाल पाये । ब्रागांजा और डोल्सी के किरदार यादगार लगे, लारा रेबेलो की वापिसी ने उन्हें हैरान किया और उसके पति की हत्या ने उन्हें अंदर तक द्रवित किया । क्लाइमेक्स खास तौर से पसंद आया । कुल मिलाकर उपन्यास उन्हें नये साल का धमाकेदार तोहफा लगा ।

राजसिंह को उपन्यास बहुत शानदार लगा । राजसिंह को कोलाबा कांस्पीरेसी कदरन स्लो लगा था लेकिन गोवा गलाटा से उन को ऐसी शिकायत रंचमात्र को भी न हुई । कहानी खत्म हुई तो उन्हें लगा कि जल्दी खत्म हो गयी । कोलाबा के बाद उन्हें इतनी जल्दी जीतसिंह से मुलाकात बहुत अच्छी लगी  और ब्रागांजा का किरदार छोटा होने के बावजूद मजेदार लगा ।

कपूरथला के गुरप्रीत सिंह गोवा गलाटा पढ़ कर बहुत आनंदित हुए, उन का उपन्यास खत्म करने का दिल नहीं किया क्योंकि जानते थे कि खत्म करने के बाद अगले नये उपन्यास का लम्बा इन्तजार करना पड़ेगा । बहरहाल उपन्यास की बाबत उन्होंने गारंटी करने में न छोड़ी कि वो ‘नई ऊंचाई छुएगा, वाइट गोल्ड साबित होगा’ ।

जीवन तिवारी के अनुसार वो मेरे 1970 से पाठक हैं और गोवा गलाटा उन्होंने एक ही सिटिंग में पढ़ा लेकिन, कहते हैं कि फिर भी तृप्ति न हुई, प्यास अधूरी ही रही । उपन्यास को उन्होंने पेप्सी की छोटी बोतल बताया फिर भी WHOLESOME ENTERTAINMENT करार दिया ।

जोधपुर के सोनू चांदवानी ‘गोवा गलाटा’ ‘कागज की नाव’ सरीखा लगा लेकिन इस बात का कोई संकेत तक न दिया कि दोनों उपन्यासों में उन्होंने क्या समानता पायी ! उन्होंने खेद जताया कि जीतसिंह की हेमंत से बात न हो पायी लेकिन ये न लिखा कि इस वजह से उपन्यास में क्या कमी आ गयी । गोवा गलाटा के कागज से उन्हें शिकायत हुई जो कि बकौल उन के लुगदी की ओर अग्रसर है ।

सिद्धार्थ अरोड़ा को गोवा गलाटा में खूबियां ही खूबियां पायीं अलबत्ता खूबियों का क्रमवार कोई वर्णन उन्होंने न किया । उपन्यास उन्हें तेज रफ्तार लगा, इतना कि सांस लेने का मौका न मिला । उपन्यास के कवर की उन्होंने खास तौर से तारीफ की । भाषागत कुछ विसंगतियां उन्हें अखरीं; बकौल उनके सारे किरदार एक ही जैसी जुबान बोलते लगे जो कि नहीं होना चाहिये था ।

उन की खास राय ये है कि उपन्यास का हीरो जीतसिंह नहीं, विमल होना चाहिये । जमा, जीता उन्हें जीता ही न लगा, कोई और लगा । सबसे बड़ी खामी उन्हें ये लगी कि उपन्यास के मिडल में ही कातिल की शिनाख्त हो जाती है ।

सिरसा, हरयाणा के बबलू जाखड़ खुद को जीतसिंह का सबसे बड़ा पंखा बताते हैं, लिहाजा उन्होंने गोवा गलाटा को सौ में से सौ नम्बर दिये । कहते हैं उपन्यास का पूरा आनंद लेने के लिये उन्होंने सीरीज के पिछले उपन्यास पहले फिर से पढ़े और फिर गोवा गलाटा पढ़ा । उन्होंने जीतसिंह के भविष्य के प्रति चिंता व्यक्त की जो कि मन में मधुर किन्तु भयग्रस्त भ्रांतियों को व्यक्त करता है ।

नागौर, राजस्थान के मेरे मेहरबान पाठक डॉक्टर राजेश पराशर को गोवा गलाटा मनोरंजक, तेज रफ्तार और एक ही बैठक में पठनीय लगा । अलबत्ता उन्हें उपन्यास में कई विसंगतियां दिखाई दी जो न होती तो वो उपन्यास को सर्वश्रेष्ठ करार देते । मसलन:

1. मिश्री के साथ ज्यादती होना फिर भी जीतसिंह का खामोश रहना उन्हें ठीक न लगा ।

2. पाटिल ने पूर्व तयारी के साथ सिख बन कर खून किया, जीतसिंह संयोगवश उसके रास्ते में न आता तो क्या वो खिसकने में कामयाब हो पाया होता !

3. जीतसिंह का कोर्ट के टॉयलेट के सींखचे तोड़ कर फरार होना उन्हें ठीक न लगा, उस को एडुआर्डो या गाइलो की मदद से (!) फरार होना चाहिये था ।

4. मुंह में ब्लेड वाला प्रसंग उन्हें बिल्कुल अविश्नस्नीय लगा ।

उपरोक्त सरीखी गलतियों की और भी लम्बी लिस्ट डॉक्टर साहब ने भेजी है जिसे तमाम की तमाम यहां उद्धृत करना मुमकिन नहीं ।

इतनी खामियों के बावजूद डॉक्टर साहब ने संजीदा ऐलान किया है कि वो उपन्यास को फौरन फिर पढ़ेंगे और पहले से ज्यादा आनंदित होंगे ।

विकास कौशिक को गोवा गलाटा अच्छा लगा, कहानी की गति  अच्छी लगी और सब से अच्छा ये लगा कि जीतसिंह को किसी सुपर हीरो की तरह न पेश किया गया और कहानी असलियत के करीब लगी । जीतसिंह की जेबें खाली न होने की बाबत उन्होंने जो गलती निकाली वो ऐन दुरुस्त है, मैं इसकी सफाई अलग से पेश करूंगा ।

बनारस के विकास अग्रवाल ने गोवा गलाटा के प्रति अपनी राय बड़े विलक्षण तरीके से पेश की है । उन्हें उपन्यास पढ़ कर ‘मजा आया’ लेकिन ‘बहुत मजा न आया’, उपन्यास कदरन अच्छा था, उस में थ्रिल थी, स्पीड थी, कुछ विसंगतियां थीं, उपन्यास शानदार था, पैसा वसूल था ।

सागर कुमार को गोवा गलाटा पढ़ कर ‘मजा आ गया’ । उन्होंने इसे कोलाबा कांस्पीरेसी भाग दो करार दिया । जीते के किरदार ने उन्हें खास तौर से प्रभावित किया । बकौल उन के क्राइम लेखन के तौर पर मेरी स्थिति मजबूत करने में जीते का भारी योगदान है ।

उपन्यास का क्लाइमेक्स उन्हें खास तौर से पसन्द आया जिस में उन के मुताबिक सांप भी मर गया और लाठी भी न टूटी । वैसे भी उन का कहना है कि आज तक जीतसिंह ने जो भी किया, ‘अजीब’ ही किया, कभी वो न किया जो कि नार्मल लोग करते हैं । उस की अलग ही सोच है, अलग ही दिमाग है, अलग ही जज्बात हैं ।

महेंद्र सिंह ने गोवा गलाटा के प्रति अपनी राय इन शब्दों में व्यक्त की:

It starts off very well, sets the expectation very high, slows down soon and slowly takes the story ahead. Jeet Singh seems to have become sober and matured and does not look like the one whom we met in ‘Midnight Club’ or ‘Jurrat’. He has become more human, and he talks like white collar educated folks, his language at many places sounds like that of a Sunil or Vimal. Both Briganza and Behramji Contractor should have been more brutal enough to justify their positions.

नयी दिल्ली के योगेश को गोवा गलाटा तीव्र गति वाली सुपर फास्ट ट्रेन की मस्त सवारी की तरह लगा जिस में एक बार बैठने के बाद तभी उठा जाता है जब मंजिल पर उतरना हो, बीच में उठने या बोझिल होने की गुंजायश बिल्कुल भी नहीं थी

एक बात उन्हें खास तौर से खटकी:

मिश्री के साथ हुए जुल्म की जीतसिंह को भनक तक न लगी । जितने वक्त तीन मर्द मिश्री पर कहर बरपा रहे थे, उतने वक्त जीतसिंह अकेला कमरे में बैठा क्या सोच रहा था, क्या कर रहा था ।

उपन्यास का अन्त उन को ऐसा लगा जैसे लेखक ने न लिखा हो, प्रकाशक ने खुद लिख लिया हो । उन के खयाल से अंत में जीतसिंह और बहराम जी कांट्रेक्टर के बीच कुछ देर चूहे बिल्ली खेल होना चाहिये था ।

बहरहाल उन्हें खुशी है कि जीतसिंह सिर्फ हारा ही नहीं, बल्कि जीता भी, फिर चाहे वो बड़ा दांव लगा कर छोटा दांव जीता, मगर जीता ।

गुरबख्श सिंह गांधी को उपन्यास बहुत अच्छा लगा लेकिन उन की राय में:

1. जीतसिंह के पास कोर्ट से भागते वक्त मोबाइल या पैसा नहीं होना चाहिये था । (मैं पूर्णतया सहमत हूं)

2. जीतसिंह को बतौर फरार अपराधी कोर्ट से सजा मिलती दिखाई जानी चाहिये थी । (जरूर, लेकिन शहर के मालिक ब्रागांजा ने केस रफादफा करवाया न !)

3. ब्रागांजा को पोंडा का इतना बड़ा दादा दिखाया पर उसको रोल सिर्फ शुरु में और अंत में दर्शाया ।

4. जीतसिंह को मुम्बई में क्या सिर्फ बहराम जी का आदमी जानता था जिसका कत्ल जीते ने किया और बहराम जी ने पीछा छोड़ दिया । (बहराम जी ने पीछा इसलिये छोड़ा क्योंकि उसने जीतसिंह - रोशनबेग - को मरवा डाला था !)     

कपूरथला के गुरप्रीत सिंह की राय में जीतसिंह अपने हर नये कारनामे में आगे बढ़ता जा रहा है । बकौल उन के, कुछ पाठकों का ये कहना गलत है कि जीतसिंह विमल बनता जा रहा है क्योंकि अगर ऐसा होता तो ‘गोवा गलाटा’ में लारेंस ब्रागांजा और बहराम जी कांट्रेक्टर ढेर होते । सिंह साहब को उपन्यास बहुत अच्छा लगा, डायलाग और भी अच्छे लगे और कहीं भी ऐसा न लगा कि उपन्यास को जबरदस्ती लम्बा घसीटा गया था !

उन्होंने उपन्यास को 10 में से 20 नम्बर दिये ।

मैजबर्ग, जर्मनी के रविकांत को उपन्यास भरपूर पसन्द आया जिसे कि उन्होंने एक ही बैठक में पढ़ कर खत्म किया । उन को शिकायत है कि उपन्यास जीतसिंह का था फिर भी कोई डकैती नहीं, कोई चोरी नहीं ।

निछासन - खीरी के एडवोकेट सुबोध कुमार पाण्डेय को ‘गोवा गलाटा’ कथ्य वर्णन में औरों से सर्वथा भिन्न लगा और खूब पसन्द आया । अलबत्ता ये बात उन्हें अटपटी लगी कि क्या वास्तव में भारत जैसे लोकतंत्र में गोवा जैसे राज्य के किसी शहर या कसबे में ब्रागांजा जैसे सर्वशक्तिमान डॉन का अस्तित्व सम्भव है पुलिस प्रशासन और मैजिस्ट्रेट तक जिस की मुट्ठी में हों, जिस की मर्जी के बिना पत्ता न खड़कता हो ! दूसरे ऐसी सलाहियात वाले और साधन-सम्पन्न डॉन के दफ्तर जीतसिंह द्वारा उस को धमकी जारी कर आना और फिर उसी शहर में छुपे व बचे रह कर खुद को बेगुनाह साबित कर लेना पाण्डेय जी को थोड़ा असम्भव सा लगा । साथ ही इस विषय में ये कह कर मुझे अभयदान दिया कि ये लेखकीय स्वतंत्रताओं में लिया जा सकता है वर्ना कहानी कैसे चलेगी !

मिश्री की दुर्दशा और डोल्सी की भावनायें पाण्डेय जी के दिल को छू गयीं । उपन्यास उन्हें इतना मनोरंजक और तेज रफ्तार लगा कि पढ़ चुकने धाड़-धाड़ कर खून बजता रहा ।

अमनीक असनीक ने ‘गोवा गलाटा’ को जानदार, शानदार, गजब, सुन्दर जैसे विशेषणों से नवाजा । कहते हैं मेरे नावल पढ़ कर बहुत अच्छा होता है और बुराई से लड़ने की ताकत मिलती है ।

आर के पुरम, नई दिल्ली के दिनेश रावत को उपन्यास बहुत रोचक और तेज रफ्तार लगा । उन्हें इस उपन्यास में जीतसिंह की जिंदगी में ठहराव आता दिखाई दिया । कहते हैं कहीं-कहीं उन्होंने उपन्यास में मेरी छवि महसूस की (!)

और अंत में मेरे विशिष्ट पाठक बटाला के प्रोफेसर जोशी की राय उन्हीं के शब्दों में:

“...excellent execution of the plot. Jeeta superb, better than Vimal, the fading (faded) phenomenon. I could not imagine the climax and am sure nobody could have. The novel is a testimony of your mastery in the art of novel writing with such a wonderful twist !!”