सिंगला मर्डर केस

उपरोक्त उपन्यास सुनील सीरीज में 121 वां है और मेरी आज तक प्रकाशित कुल रचनाओं में 288 वां है । मुझे खुशी है कि उपन्यास मेरे हर वर्ग के पाठकों को – एकाध अपवाद को छोड़कर जो कि हमेशा ही होता है – पसंद आया है ।

गोंदिया के शरद कुमार दुबे की निगाह में ‘कोलाबा कांस्पीरेसी’ के धमाकेदार प्रवेश के बाद ‘सिंगला मर्डर केस’ मानो दबे पांव दाखिल हुआ लेकिन अपनी हाजिरी लगवाने में 100% सफल हुआ । सीरीज के सभी स्थायी पात्र अपने अपने रोल में खरे उतरे । बकौल दुबे साहब, उपन्यास ने उन का भरपूर मनोरंजन किया ।

मेरे कदरन नये पाठक वर्धा के हनुमान प्रसाद मुन्दाता को उपन्यास बेहतरीन लगा । खुद उन के शब्दों में, ‘नपा तुला मास्टर स्ट्रोक’ लगा । सुनील और रमाकांत उपन्यास में उन्हें पूरे जलाल पर दिखाई दिये । मुन्दाता साहब को शिकायत है कि उन्हें मेरे उपन्यास मुहैया करने में बहुत दिक्कत पेश आती है क्योंकि उन के शहर में उपन्यास केवल बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन के बुक स्टाल पर ही मिलते हैं जिन के लगातार चक्कर लगाने पर ही आखिर मेरा उपन्यास उन के हाथ लगता है ।

उपरोक्त से स्पष्ट होता है कि पॉकेट बुक्स के पाठकों में कोई कमी नहीं आयी है, कहीं कमी है तो प्रकाशक की वितरण व्यवस्था में है जो कि समूचित नहीं है, संतोष जनक नहीं है ।

नवीन शुक्ला भी बतौर पाठक हाल ही में मेरे संपर्क में आये हैं, वैसे वो अपने आप को मेरा HARD CORE FAN बताते हैं । ‘सिंगला मर्डर केस’ को उन्होंने मेरे नाम और शोहरत पर धब्बा बताया और उसे अपने सौ रुपयों की बर्बादी का दर्जा दिया । बकौल उन के उपन्यास में कतई कोई मिस्ट्री नहीं थी, कुछ पेज पढ़ते ही उन्हें अहसास हो गया था कि कातिल कौन था !

मेरा शुक्ला साहब से सवाल है :

क्या वो अहसास होते ही उन्होंने उपन्यास को वहीं दरकिनार कर दिया था ?

क्या ऐसा कोई अहसास हो जाने के बावजूद उस अहसास की कन्फर्मेशन जरूरी नहीं होती जिस के लिए कि पूरा उपन्यास आखिर तक पढना लाजमी होता है ?

अहसास होने के बाद क्या ये जानने की उत्सुकता नहीं होती कि कथित हत्यारा क्योंकर हत्यारा साबित हो पाया ?

मेरे खयाल से मर्डर मिस्ट्री को ये नीयत बना कर पढना शुरू करना गलत है कि आप खुद को हीरो से ज्यादा चतुर सुजान सिद्ध कर के रहेंगे । ऐसी नीयत रखना उपन्यास पढने का आनन्द खोना है ।

सीमाब आलम खान साहब को उपन्यास में बहुत कमियां लगी फिर भी उन का कहना है कि ‘सिंगला मर्डर केस’ पढने में उन्हें बहुत आनन्द आया क्यों कि उपन्यास में पकड़ थी, रवानगी थी । सुनील और प्रभुदयाल के बीच का वार्तालाप खान साहब को तुरुप का पत्ता जान पड़ता है जो कि इस सीरीज के किसी भी उपन्यास को अकेला ही कामयाब बना सकता है ।

लखनऊ के शैलेश अग्रवाल ने ‘सिंगला मर्डर केस’ के सचित्र संवाद तैयार किये हैं जो कि बहुत ही उम्दा हैं और जिन्हें उन्होंने फेसबुक पर भी पोस्ट किया है । ये एक मेहनत और लगन का काम था जिस को अंजाम दे कर उन्होंने मेरे लिये निष्ठा का प्रदर्शन किया है और जिस के लिए मैं उन का आभारी हूं ।

ग्वालियर के के. के. दुबे को ‘सिंगला मर्डर केस’ की कहानी अच्छी लगी, सस्पेंस उम्दा लगा लेकिन कथानक ज्यादा रोचक न लगा ।

ये कैसा विरोधाभास है दुबे जी ? क्या कहानी और कथानक जुदा शै होती है ? जब कहानी अच्छी थी तो कथानक से शिकायत किस लिये ? जब कथानक रोचक न लगा तो कहानी अच्छी क्योंकर हुई ? सस्पेंस उम्दा क्योंकर हुआ ?

दुबे जी को पात्रों का आपसी कथोपकथन बहुत लम्बा और उबाऊ लगा क्यों कि उस में से ‘मिर्च मसाला’ गायब था ।

नागपुर के महेश मुथाल को ‘सिंगला मर्डर केस’ खूब खूब पसंद आया । अलबत्ता उन को खेद है कि शादियों का सीजन जारी होने की वजह से वे उपन्यास को एक ही बैठक में पढ़कर समाप्त नहीं कर पाये । उन्होंने उपन्यास की इस नयी बात को खास तौर से नोट किया कि आखिर तो ऐसा हुआ कि सुनील जिस का तरफदार हो, वो ही कातिल निकले ।

मेरे सुबुद्ध, कानून के ज्ञाता पाठक दिल्ली के विशी सिन्हा को ‘सिंगला मर्डर केस’ में सस्पेंस की भरपूर खुराक मिली । बकौल उन के उपन्यास में इतने सस्पैक्ट थे कि दिमाग घूम के रह जाता था और हर सस्पैक्ट के पास कत्ल का कोई न कोई मकसद भी नजर आता था, थोड़े समय बाद उसे बेगुनाह साबित कर दिया जाता था और कोई नया सस्पैक्ट सामने आ जाता था । आखिर में जब कत्ल का खुलासा हुआ तो संशय होने लगा कि कहीं एक बार फिर कोई नया सस्पैक्ट नमूदार न हो जाये ।

विशी सिन्हा को प्रभुदयाल का अपनी आदत के विपरीत अप्रत्याशित रूप से सुनील को सहयोग देते देखना सुखद लगा, रमाकान्त हमेशा की तरह अपने रंग में मिला और होठों पर बरबस हंसी ला देने का बायस बना, इतना कि कई बार उन्हें उपन्यास पढना रोक कर हंसने पर मजबूर होना पड़ा ।

दिल्ली के इमरान अंसारी ने ‘एक ही बैठक में पठनीय’ उपन्यास ‘सिंगला मर्डर केस’ एक ही बैठक में पढ़ा । नावल उन को बहुत पसंद आया, उन्हें एक अरसे बाद मर्डर मिस्ट्री का वो लुत्फ हासिल हुआ जिसने रहस्य और रोमांच के दीवानों को लेखक का शैदाई बना रखा है । उपन्यास उन को हकीकी जमीन पर टिका और तर्क से भरपूर लगा । बकौल उन के रमाकान्त और सुनील की सदाबहार जुगलबन्दी और प्रभुदयाल के कुछ बदले स्वरूप ने नावल को और भी चार चाँद लगा दिये । लिहाजा एक सम्पूर्ण और शानदार सुनीलियन उपन्यास पूरे नंबरों से पास ।

मनु पंधेर ने अपनी राय इंग्लिश में जाहिर की है जिसे मैं अक्षरशः नीचे दोहरा रहा हूं क्यों कि वो अपेक्षित राय से सर्वदा भिन्न है :

This is second time I am disappointed by your writing. First time it was ‘KAMPTA SHEHAR’ and now this, which is a total loss. We your readers are used see Prabhu Dayal and Sunil in opposite corners and not in same side. .45 calibre is not normal gun. If police checked record of firearms of all suspects then it was easy to find murder weapon ( ! ) and murderer. Secondly, in metropolitan cities an Ambassador car is a rare thing.

SMC for me is a total waste of time and money.

पंधेर साहब की राय मेरे सिर माथे । मुझे दुख है कि ‘सिंगला मर्डर केस’ पढना उन्हें इतना नागवार गुजरा लेकिन साथ ही खुशी भी है कि उन के जैसी राय मेरे अन्य पाठकों की नहीं है ।

राय के बदले में पंधेर साहब के लिये एक राय मेरी भी है । उपन्यास को मनोरंजन के साधन के तालिब रीडर की तरह पढ़ें, छिद्रान्वेषी जासूस की तरह न पढ़ें । इस जिद के साथ न पढ़ें कि कोई खामी तलाश कर के रहनी है । किसी एकाध बात में आप को – रीपीट आप को, सिर्फ आप को – नाइत्तेफाकी होना ये स्थापित नहीं कर सकता कि पूरा उपन्यास ही घटिया है, निकम्मा है, फेल है । आप की व्यक्तिगत राय में दम है तो उसे दूसरों की राय से मैच करता होना चाहिये । खाने में ये कह के नुक्स निकालना उचित नहीं होता कि जिस थाली में वो परोसा गया था, वो ठीक नहीं थी । फलां कार नहीं होती, गन ऐसे ट्रेस होती है वगैरह खाने की जगह थाली में नुक्स निकालने जैसे ही काम हैं ।

अमित त्यागी को ‘सिंगला मर्डर केस’ खूब पसंद आया, चान्दी की वो प्लेट लगा जिस में ‘लेखकीय’ सोने की गिलोरी और शोर्ट स्टोरी हीरे की लौंग की तरह रची बसी मिली । उपन्यास की साज सज्जा ने जितना त्यागी जी को निराश किया, उससे कहीं अधिक कहानी असली अपराधीऔर लेखकीयने उत्साहित किया । रमाकांत अपनी फुल फार्म के साथ, अपनी स्मार्ट टॉक के साथ उपन्यास में उपस्थित रहा । सुनील और प्रभुदयाल की जुगलबंदी सुखद लगी और उसने उनकी इस सोच को पुष्ट किया कि उन्हें कभी होली-दीवाली एक दूसरे से सहयोग करते भी दिखना चाहिए ।

 शॉर्ट स्टोरीके बोनस से उन्होने संतुष्टि जाहिर की और कुल जमा उपन्यास को जबरदस्तकरार दिया ।

 राजसिंह का सुनील पसंदीदा किरदार है और सुनील सीरीज उनकी पसंदीदा सीरीज है । उन्हें पूरा यकीन है कि ऐसा मौका कभी नहीं आएगा जबकि वो कहेंगे कि उन्हें सुनील का नावल पसंद नहीं आया या सस्पेंस की कमी लगी । 121 उपन्यास ही ये साबित करते हैं कि सुनील तो सुनील है, उसके जैसा कोई नहीं । उनकी निगाह में सिंगला मर्डर केसमें ये खास बात थी कि वो नहीं चाहते थे कि मानसी मेहता कातिला निकलती क्योंकि मानसी मेहता उनकी गर्ल फ्रेंड का नाम है ।

 विज्जु पांचाल की राय में सिंगला मर्डर केसमें वो बात नहीं थी, पर उपन्यास क्योंकि मेरा था इसलिए उन्हें कुबूल था । सुनील को भाग दौड़ करता देखना उनको अच्छा लगा, उसने सब कुछ अपने आप किया, रमाकांत के आदमियों से कुछ ही हेल्प ली ।

 लखनऊ के गौरव निगम को सिंगला मर्डर केसकी सूरत में लाजवाब थ्रिलर मिला । उपन्यास उन्हें किसी माहिर बैट्समैन के दर्शनीय, गगनचुंबी उन छक्कों सरीखा लगा जिनमें बाल स्टेडियम की पार्किंग में जाकर गिरती है । लाजवाब रफ्तार से बढ़ती कहानी, सुनील-रमाकांत-प्रभूदयाल की स्मार्ट टॉक खूब रही । पुराने दुकानदार की जुबान में में कहूं तो और क्या लोगे ? हाथी घोड़ा !

 लखनऊ के अभिषेक अभिलाष को - जिन्हें कि आजकल मेरा कोई उपन्यास शायद ही कभी पसंद आता है - सिंगला मर्डर केसबहुत अच्छा लगा, उसकी स्टोरी लाइन गजब की लगी, कहानी का प्रवाह बहुत स्मूथ लगा और आखिर तक वो कातिल की बाबत कोई अंदाजा न लगा सके ।

 आनंद पांडेय ने सिंगला मर्डर केसको ओकेरेटिंग दी । उनको उपन्यास का टेक ऑफ पसंद न आया, जर्नी ओके लगी लेकिन एंड फेंटेस्टिक लगा । ये बात खास तौर से उनकी तवज्जो में आई कि ये पहला मौका है कि सुनील जिसका तरफदार बना, वही कातिल निकला । उनको सुनील की रमाकांत के साथ कैमिस्ट्री उम्दा लगी । इन्वैस्टिगेशन एक लीक पर चलती लगी जिसमें कि कोई मोड़, तोड़ नहीं था यानी कोई ट्विस्ट्स, टर्न्स नहीं थे, ड्रामेटिक्स व ड्रामा एलीमेंट कमजोर था । फिर भी उपन्यास उन्हें टिपिकल सुनिलियनलगा ।

 शाहदरा, दिल्ली के नारायण सिंह को सिंगला मर्डर केसअच्छा लगा पर बहुत अच्छा नहीं लगा । दरअसल वो सुनील सीरीज की एक ही लाइन की कहानी से परेशान हैं और उसमें कोई इंकलाबी तब्दीली चाहते हैं । एक तब्दीली जो उन्होने सुझाई है वो सुनील की शादी है ।

 कातिल का उनका अंदाजा किसी पर भी फिट न बैठा । सबसे मजेदार और पठनीय पैरे उन्हें वो लगे जिनमे सुनील प्रभूदयाल को उपाध्याय के कातिल होने का खाका खींचकर दिखाता है और और अंत में कहता है कि वो कातिल नहीं है ।

 ठाकुर सुल्तान सिंह का किरदार उन्हें कम असरकारक लगा ।

 बनारस के अति विद्वान प्रोफेसर अनिल अग्रवाल को उपन्यास तो पसंद आया लेकिन साथ की स्टोरी असली अपराधीके विषय में बेतहाशा विसंगतियां दिखाई दी, जैसे कि:

 1. शालिनी को अपने आवास पर ईजी चेयर पर बैठा लिखा गया लेकिन बाद में ईजी चेयर, व्हील चेयर में तब्दील हो गई ।

 2. पृष्ठ 301 पर लिखा है कि शालिनी टैक्सी पर कसौली के लिए रवाना हुई, फिर पृष्ठ 302 पर लिखा है पीछे गैराज में उसकी कार खड़ी थी जो जाहिर करती है कि वो खुद ड्राइव कर के कसौली आई थी ।

 3. लाश को देखकर कैसे कहा जा सकता है कि रेप हुआ या नहीं हुआ । रेप की पुष्टि तो एक्सपर्ट मैडीकल एग्जामिनेशन के बाद ही हो सकती है ।

 4. लाश की हालत देखकर आगाशे, बंसल इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंचे कि शालिनी को मरे कम से कम चार दिन हो चुके थे ? (पृष्ठ 301) आगाशे ने कैसे जाना कि कत्ल पिछले इतवार को हुआ ?

 5. कसौली से लौटकर जब आगाशे ने जेल जाकर विनोद बाली से भेंट की (पृष्ठ 303) उसे बताया कि शालिनी अपनी हत्या के समय लॉकेट वाला हारपहने थी तो विनोद का ये पूछना कि हार के लॉकेट के अंदर शालिनी का हस्ताक्षरित बयान ढूंढा या नहीं, आगाशे के प्रति विनोद के मन में संदेह पैदा करता है । विनोद ने पहले भी शालिनी को वह हार पहने देखा है (पृष्ठ 273) तो उसका हार के बारे में पूछना कैसे शक पैदा कर सकता है ?

उपरोक्त विसंगतियों में से 1 और 2 लिए मैं सरासर गुनाहगार हूं । लेकिन ये सिम्पल, क्लैरिकल मिस्टेक हैं जो कि एडिटिंग-प्रूफ रीडिंग के दौरान दुरुस्त की जा सकती थी लेकिन खेद है कि हमारे पॉकेट बुक्स के ट्रेड में एडिटिंग का तो कोई सिस्टम है ही नहीं, प्रूफ रीडिंग भी कामचलाऊ, गैरजिम्मेदाराना ढंग से की जाती है । विदेशों में लेखक टेक्सट की कंटीन्यूटी पर निगाह रखने के लिए असिस्टेंट रखते हैं, पर मैं ऐसा असिस्टेंट रखना अफोर्ड नहीं कर सकता । जमा, मैं उम्रदराज शख्स हूं । लिहाजा कंटीन्यूटी की ऐसी गलतियों का भविष्य में भी होना संभव है ।

3. रेप हुआ, ये अग्रवाल साहब की खामख्याली है । कहानी में मैंने कहीं ऐसा नहीं लिखा है कि रेप हुआ था, मैंने केवल रेप की, रेपिस्ट की संभावना व्यक्त की थी । ये बात पृष्ठ 302 के इस डायलॉग से भी उजागर है:

लूट नहीं, रेप नहीं, तो क्यों हुआ कत्ल ?”

4. लाश चौबीस घंटे के बाद डिकम्पोज होने लगती है, यानि सड़ने लगती है, बास मारने लगती है । डिग्री ऑफ डिकम्पोजीशन से ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि हत्प्राणा को मरे कितना अरसा हुआ था । फिर चार दिन पीछे जाकर इतवार पर पहुंचना क्या प्रॉब्लम था ?

5. शालिनी का पति एक धनाड्य व्यक्ति था, ऐसी स्त्री के पास दर्जनों की तादाद में जेवर हो सकते थे । फिर ये क्यों जरूरी था कि जो जेवर वो एक बार पहने देखी गई थी, वही वो हमेशा पहने दिखाई देती । जमा, धनाड्य, शौकीन स्त्रियों की घर में पहनने वाले जेवरों की और घर से बाहर पहनने वाले जेवरों की चायस जुदा होती है ।

पूना के मकरंद आचार्य को सिंगला मर्डर केसबहुत शिद्दत के बाद हासिल हुआ । कुछ अन्य पुस्तकों के साथ उन्हें वो तब हासिल हुआ जबकि वो ऑन लाइन हजार रुपये खर्च कर चुके थे । उनकी इस स्टोरी का एंटीक्लाइमेक्स ये है कि तब तक NEWSHUNT पर नॉवेल चालीस रुपये में उपलब्ध हो चुका था । बहरहाल नावल आचार्य साहब को बहुत बहुत पसंद आया और वो उन्होने एक ही सिटिंग में रात को 10 बजे तक जाग कर पढ़ा । लेखकीयउन्हें फाइव स्टार होटल की फाइन डाइनिंग के एपेटाइजर सरीखा लगा । बकौल उनके उन्हें याद नहीं पड़ता कि लास्ट टाइम इतना स्वादिष्ट भोग कब लगा था

राजीव सिन्हा को सिंगला मर्डर केस नावल तो अच्छा लगा लेकिन उन्हें प्रभूदयाल का सुनील पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान होना पसंद नहीं आया । बकौल उनके, उन दोनों की पहले वाली, टॉम एंड जैरी वाली हरकतें ही बेहतर थीं ।

उदयपुर राजस्थान के संजय कुमार को सिंगला मर्डर केससुनील सीरीज के अब तक प्रकाशित नावलों से अलग लगा, प्रभुदयाल की सुनील के प्रति दयानातदारी पसंद आई, रमाकांत खूब जंचा और उसकी सुनील से नोक झोंक अच्छी लगी । हाउसकीपर की घर में मौजूदगी में कत्ल होने की वजह से उन्हें सारा शक हाउसकीपर पर ही जाता लगा और असली कातिल की तरफ उन की तवज्जो तक ना गई । कुल मिलाकर उन्हें नावल और लेखक का अंदाजे बयां बेहतरीन लगा ।

 मेरे पुराने पाठक नरेन्द्र सिंह कोहली को जो कि मेरा हर उपन्यास कम से कम पांच बार पढ़ते हैं - सिंगला मर्डर केसबहुत स्लो लगा और सुनील उपन्यास में पूरी तरह एक्टिव न लगा ।

 मैं उनकी राय से सहमत तो नहीं हो सकता क्योंकि मेरे अन्य पाठकों की ये राय नहीं है, लेकिन मैं उन से वादा करता हूँ कि सुनील का अगला कारनामा मैं और भी तेज रफ्तार लिखने की कोशिश करूंगा ।

मैं अपने मेहरबान पाठकों का तहेदिल से शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने अपनी कीमती राय से मुझे अवगत कराया और भविष्य में भी इस नवाजिश का तलबगार हूं ।

 

विनीत

सुरेन्द्र मोहन पाठक