‘कातिल कौन’ के प्रति पाठकों की राय :

- हनुमान प्रसाद मुंदड़ा को कातिल कौन ‘परफेक्ट, आइडियल, शानदार, ऐन मेरी पसन्द का’ लगा । बकौल उन के काफी समय बाद उन को कोई बढ़िया थ्रिलर (मर्डर मिस्ट्री नहीं) पढने को मिला । साथ में प्रकाशित हुए लघु उपन्यास ‘खुली खिड़की’ को उन्होंने लाजवाब बोनस करार दिया और गिला जाहिर किया मैंने उसे सुधीर कोहली का फुल लेंथ कारनामा क्यों न बनाया ।

- मुंबई की डॉक्टर सबा खान को भी ‘कातिल कौन’ से ज्यादा ‘खुली खिड़की ने मुतमईन किया और उन्होंने उपरोक्त सरीखी ही बाकायदा शिकायत की कि इतने शानदार कथानक का कलेवर इतना छोटा क्यों ? बकौल खुद उन के :

आप जैसे आला दर्जे के अफसानानिगार के लिये इसे तराश कर एक मुकम्मल नॉवल का दर्जा देने में क्या दिक्कत थी ? डेयरी मिल्क की जगह एक्लेयर्स दे के बहलाने की कोशिश जैसा लगा यह तो ! बहरहाल ‘खुली खिड़की’ ने पूरे तौर पर दिमागेरौशन में हवा की आवाजाही की । रजनी की कमी बहुत अखरी । कुल मिला कर आप के अपने स्टाइल में लिखी गयी एक बेहतरीन कहानी - काश पूरा उपन्यास सुधीर कोहली का होता ।

- सहारनपुर के प्रमोद जोशी को उपन्यास ने इस कदर प्रभावित किया कि बकौल उन के, ‘सत्तर पन्नों तक पहुंचते ही दिल करने लगा कि आप को इतनी शानदार शुरुआत के लिये बधाई दी जाये’ ।

कहना न होगा कि उपन्यास के अन्त तक पहुंचने पर भी उपन्यास के प्रति उन की उपरोक्त राय न बदली, जितनी शानदार उन्हें शुरुआत लगी, उतना ही रोचक बाकी उपन्यास लगा ।

- लखनऊ के मदन मोहन अवस्थी की राय मैं यहां उन्हीं के शब्दों में उद्धृत कर रहा हूं :

लाजवाब ! बेहतरीन ! उम्दा !

बहुत अच्छा लगा । जो कातिल निकला, वो कातिल निकलेगा, कोई नहीं कह सकता था, जब कि शक उस पर भी होता ही था ।

सुधीर कोहली की लम्बी कहानी गजब थी । क्या धमाल ! एक साथ दो कमाल ! छा गये आप । इसी तरह लिखते रहिये और हमारे दिलों पर राज करते रहिये ।

- मोहाली, चंडीगढ़ के गुरप्रीत सिंह ने लेखक से पहले प्रकाशक को साधुवाद से नवाजा जिसने कि निहायत उम्दा वाइट पेपर पर उम्दा सजधज के साथ उपन्यास को प्रकाशित किया । लेखकीय उन्हें लैंडमार्क लगा, ख़ास तौर से तन्हाई के बारे में लिखा गया । ‘तनहाई’ पढ़ कर तो उन्होंने बाकायदा मुझे राय दी कि मुझे डेली पेपर में ऐसे ही विविध विषयों पर रेगुलर कॉलम लिखना चाहिये ।

‘खुली खिड़की’ उन्हें खूब पसन्द आया लेकिन उसके कलेवर से उन्हें सख्त शिकायत हुई । कहते हैं लघु रूप में लिखने से उसका बंटाधार हो गया । ‘खुली खिड़की’ परोसा जाना उन्हें ऐसा लगा जैसे पव्वे के शौकीन को कोई दो घूंट थमा दे और हुक्म करे कि आज इतने से ही मस्ती मारो ।

‘खुली खिड़की’ की एक विसंगति से उम्हें ख़ास शिकायत हुई जो, बकौल उन के, मेरे जैसे तजुर्बेकार लेखक के लिखे में नहीं होनी चाहिये थी । खुदकशी के केस में पोस्टमार्टम होना लाजमी होता है जो कि ‘खुली खिड़की’ में शीना तलवार का होता न चित्रित किया गया ।

गुरप्रीत सिंह ने उपरोक्त गलती को सही उजागर किया है लेकिन निवेदन है कि मैं उस गलती से बेखबर नहीं था । वो गलती इत्तफाकन नहीं हुई थी, मैंने इरादतन की थी क्योंकि उसके बिना मेरी कहानी आगे नहीं चलती थी । मैंने उस को पुलिस की कोताही पर, अकर्मण्यता पर थोप कर अपना काम चलाने की कोशिश की थी लेकिन खेद है कि काम नहीं चला था । मेरे पाठक बहुत सुबुद्ध हैं, बहुत जागरुक हैं; ऐसी कोताही को न नजरअंदाज कर सकते हैं और न बर्दाश्त कर सकते हैं । बहरहाल मुझे सबक मिल गया, आइन्दा मैं ऐसी चलताऊ हरकत नहीं करूंगा ।

- नई दिल्ली के विशी सिन्हा की अपेक्षाओं पर ‘कातिल कौन’ खरा उतरा, निगम परिवार में इत्तफाक और बच्चों का अंकल के खिलाफ पिता का साथ देना, उसे डिफेंड करना उन्हें खूब भाया और उपन्यास में निहित मर्डर मिस्ट्री ने भी उन्हें पूरी तरह से मुतमईन किया लेकिन मूल उपन्यास के साथ छपे लघु उपन्यास ‘खुली खिड़की’ से उन्हें कई शिकायतें हुईं । सब से पहले तो उन्हें शीर्षक पर ही ऐतराज हुआ जो कि उन की निगाह में क्लू देता है कि खुली खिड़की कथानक की महत्त्वपूर्ण कड़ी है इसलिये जब राज खुलता है सब कुछ ऑब्वियस लगता है । लिहाजा लघु उपन्यास का नाम ‘खुली खिड़की’ मुनासिब नहीं था ।

दूसरे मैंने अल्प्रोक्स को मूड एन्हान्सिंग पिल बताया है जिसके असर में नौजवान नसल म्यूजिक पर डांस करने को मचलने लगती है जबकि विशी सिन्हा का कहना है कि ये अनिद्रा की दवा है यानी स्लीपिंग पिल है, या बड़ी हद इसे मूड स्टैबलाइजर पिल कहा जा सकता है ।

उपरोक्त के सन्दर्भ में निवेदन है कि अल्प्रोक्स सम्बन्धी मेरी जानकारी मादक पदार्थों से सम्बन्धित एक प्रकाशित लेख पर आधारित है जिसमें इस पिल को वैसा ही बताया गया था जैसा मैंने अपने लघु उपन्यास में चित्रित किया है ।

तीसरे, पोस्टमार्टम वाली बात पर उन्होंने भी ऐतराज किया है - सही ऐतराज किया है - कि अस्वाभाविक मौत की सूरत में पोस्टमार्टम लाजमी होता है और खुदकशी भी ऐसी ही मौत होती है, ख़ास तौर से तब जब कि कोई सुसाइड नोट भी बरामद न हुआ हो ।

- अहमदाबाद के शिव चेचानी को उपन्यास बहुत ही अच्छा लगा; कहानी, प्रस्तुतिकरण, भाषा सब शानदार लगी । उपन्यास में विभिन्न पात्रों द्वारा बोले गये डायलॉग्स ने उन्हें विशेष रूप से प्रभावित किया । अलबत्ता शिकायत हुई कि सारे पात्र - बूढ़े, जवान, स्त्री, पुरुष - उपन्यास में एक ही किस्म की भाषा बोलते हैं जिसमें कि कुछ बदलाव होना चाहिये था ।

‘खुली खिड़की’ पढ़ के वो बहुत आनंदित हुए, हालांकि शिकायत हुई कि सुधीर कोहली के सारे जलवे लघु उपन्यास में नहीं दिखे लेकिन लघु उपन्यास के लिहाज से उन्हें फिर भी सब कुछ ऐन मजेदार लगा ।

‘लेखकीय’ उन्हें शानदार, जबरदस्त, जिन्दाबाद लगा ।

- शाहदरा, दिल्ली के नारायण सिंह को ‘कातिल कौन’ काफी पसन्द आया हालांकि आम मर्डर मिस्ट्रीज जैसा ही था पर पठनीय लगा । उन का कथन है कि वो कभी कातिल को पहचानने की कोशिश नहीं करते बल्कि उपन्यास को एक स्वादिष्ट भोजन की थाली की तरह एन्जॉय करते हैं और आखिर में जब कातिल की शिनाख्त होती है तो उसे वो भोजन के बाद की स्वीट डिश के तौर पर एन्जॉय करते हैं ।

सब-इंस्पेक्टर सावंत का मुंबई में गैरजिम्मेदाराना व्यवहार - शराब पी कर होश खोना और अगले दिन होश में आना - उन्हें बिल्कुल हजम न हुआ ।

‘खुली खिड़की’ ने भी उन का भरपूर मनोरंजन किया, उस में सुधीर कोहली उन्हें कमाल का लगा ।

- मुंबई के अनुपम उपाध्याय ने ‘कातिल कौन’ को दस में से नौ नम्बर दिए । उन्हें इस बात ने बहुत हैरान किया कि उपन्यास के मिडल में कातिल के बारे में इतना बड़ा हिंट छोड़ा गया फिर भी उन का कातिल की तरफ ध्यान न गया ।

अपने पत्र में मुम्बई और आसपास के इलाकों के मेरे अल्पज्ञान की वजह से उन्होंने मेरी अच्छी खबर ली है । उन्हीं के बताये मुझे मालूम हुआ कि भिवंडी और कल्याण के बीच रेल ट्रैक नहीं है । दूसरे, कल्याण से होकर जाने वाली कोई गाड़ी मुंबई सेन्ट्रल नहीं जाती, वो दादर, कुर्ला या विक्टोरिया टर्मिनस जाती हैं । मुंबई सेन्ट्रल वेस्टर्न रेलवे है जब कि कल्याण सेन्ट्रल रेलवे है ।

उपाध्याय जी से मेरा वादा है कि आगे मैं पूरा ध्यान रखूंगा कि उपरोक्त जैसी स्थूल गलतियां मेरे से दोबारा न हों ।

- भोपाल के गोपाल गिरधानी को ‘कातिल कौन’ बेहद पसन्द आया, उन्हें वो सिर्फ मर्डर मिस्ट्री या जासूसी उपन्यास ही न लगा, सामाजिक उपन्यास लगा । एक मध्यम वर्गीय परिवार के सदस्यों के आपसी प्रेम और उन के बीच पनपे अन्तर्द्वन्द्व और कशमकश को उन्होंने बहुत खूबसूरती से चित्रित किया गया पाया । अलबत्ता वो कहते हैं कि कातिल का अन्दाजा उन्हें कत्ल के थोड़ी देर बाद ही लग गया था । बावजूद इसके उन्हें उपन्यास चुस्त-दुरुस्त, तेज रफ्तार और चौकस लगा और उसे उन्होंने डिस्टिंक्शन के साथ पास किया ।

‘खुली खिड़की’ गिरधानी साहब को वाह-वाह लगा । लघु उपन्यास होते हुए भी उन्हें ‘खुली खिड़की’ सुधीर सीरीज की तमाम खूबियां समेटे लगा, मूल वेतन के साथ दीवाली के बोनस जैसा लगा ।

बहरहाल दोनों ही रचनाओं को उन्होंने विशिष्ट श्रेणी में पास किया ।

- गोरखपुर के मनीष पाण्डेय का कहना है कि ‘कातिल कौन’ जरूर मैंने 300 पेज के काबिल लिखा था जिसे काट-छांट कर मैंने 200 पेज का कर दिया था ताकि ‘खुली खिड़की’ के लिये गुंजायश निकल पाती । कहते हैं कि सुधीर कोहली 70 पेज के काबिल तो नहीं था और जो 70 पेज के काबिल था वो 200 पेज में छपा ।

यानी उन्हें दोनों ही उपन्यासों ने असंतुष्ट किया ।

- जबलपुर के मेरे विद्वान पाठक डॉक्टर अमरेश चन्द्र मिश्रा को ‘कातिल कौन’ बेहतरीन हूडनइट लगा । कहते हैं कातिल जब पकड़ा जाता है तो मैंने सर फोड़ लिया कि सारे सुराग सामने थे फिर भी मैं कातिल को न ताड़ पाया । मिश्रा जी ने इस बात को भी अनोखी पहल का दर्जा दिया कि मैंने कहानी को एक मध्यम वर्गीय परिवार पर केन्द्रित किया जब कि अमूमन मेरे ऐसे उपन्यासों का केंद्र धनाढ्य, खानदानी वर्ग होता है, हाई सोसाइटी होता है । अलबत्ता मिश्रा जी को शिकायत हुई कि मैं कहानी में कंटीन्यूटी बरकरार न रख पाया और इस सिलसिले में कुछ उदाहरण भी उन्होंने अपने पत्र में दर्ज किये । दूसरी शिकायत उन्हें प्रूफ की गलतियों से हुई ।

मेरा मिश्रा जी से वादा है कि उपरोक्त की बाबत आइन्दा लेखक और प्रकाशक दोनों पूरी पूरी सावधानी बरतेंगे ।

- नयी दिल्ली के योगेश लायलपुरी को ‘कातिल कौन’ धीमी गति का उपन्यास लगा जो कछुए की भांति धीरे धीरे चलते हुए किसी तरह अपनी मंजिल तक पहुंचा । उपन्यास से ख़ास पाठकीय मसाला उन्होंने पूरी तरह से गायब पाया जिस की वजह से उपन्यास फीका फीका लगा । जो बात सब-इंस्पेक्टर सावंत को अन्त में सूझी, लायलपुरी साहब कहते हैं उन्हें तभी सूझ गयी थी जब कि उसकी बाबत प्रसंग उपन्यास में आया था । उन के हिसाब से कातिल माधव निगम होता तो बेहतर होता, तो उपन्यास पूरी तरह से पारिवारिक मर्डर मिस्ट्री बन जाता ।

मेरा सवाल : तब क्या कछुए जैसी उपन्यास की धीमी गति की शिकायत भी दूर हो जाती ?

- आनन्द गुजरात के डॉक्टर गिरीश श्रीवास्तव ने अपनी राय इंग्लिश में भेजी है, उन के खुद के शब्दों में :

‘Qatil Kaun’ is a fast paced, nicely written book. The suspense was really nice. The end portrayed fantastic human emotions and family values in a closely knit family - each member ready to sacrifice himself/herself for the other family member. The plot had great twists and turns and had a social message to deliver to the families.

डॉक्टर श्रीवास्तव अन्त में कहते हैं कि उन्हें उपन्यास इतना पसन्द आया कि ‘खुली खिड़की’ पढ़े बिना ही वो उसके बारे में अपनी राय मुझे मेल करने बैठ गये

तदोपरांत उन्होंने ‘खुली खिड़की’ के बारे में भी अपनी राय भेजी जो कि इस प्रकार है :

लघु उपन्यास ‘खुली खिड़की’ उन्हें खूब पसन्द आया, सस्पेंस उम्दा लगा, अन्त अनपेक्षित लगा लेकिन मेरे द्वारा किया गया अल्प्रोक्स का वर्णन उन्हें भ्रामक बल्कि गलत लगा । अल्प्रोक्स को मैंने मूड एन्हान्सिंग ड्रग लिखा है जबकि वो ड्रग है ही नहीं, उसका मादक पदार्थों से, नारकोटिक्स से कुछ लेना देना नहीं है । वस्तुत: ये एक सेडेटिव जैसी दावा है जो पेशेंट डिसऑर्डर और एंग्जायटी को कण्ट्रोल करने के काम आती है । यानी काम्पोस जैसा ट्रांक्विलाइजर है न कि मोर्फीन, हेरोइन, कोकीन जैसा नशे का जरिया । यानी ये एक नॉन एडिक्टिंग, सेफ दवा है न कि नारकोटिक्स बिरादरी का कोई नशा ।

उपरोक्त के सन्दर्भ में मेरा निवेदन है कि अल्प्रोक्स के बारे में मैंने जो लिखा था वो एक जिम्मेदार नेशनल डेली न्यूज़पेपर में पढ़ कर लिखा था जिस में कि इस को मूड एन्हान्सिंग ड्रग ही बताया गया था । ड्रग्स की, एलोपैथिक दवाओं की मुझे कोई व्यक्तिगत जानकारी नहीं लिहाजा अगर इस बाबत मैंने गलत लिखा तो जाहिर है अख़बार ने गलत छापा ।

- गोंदिया, महाराष्ट्र के शरदकुमार दुबे को ‘कातिल कौन’ बेहतरीन मर्डर मिस्ट्री लगा । कहते हैं - एक वाक्य में कहें तो ‘मजा आ गया’ । उन्होंने उपन्यास को 100 में से 100 नम्बरों से पास किया । रचना निगम की कुर्बानी उन्हें बेमिसाल लगी, साथ ही सोमेश और माधव निगम का चरित्र चित्रण उन्हें ख़ास तौर से पसन्द आया । लेकिन कहते हैं कि ‘खुली खिड़की’ पढ़ कर तो मन गदगद हो गया, एक बहुत ही उम्दा कहानी पढने को मिली और रुपया-आना-पाई सब वसूल पायी ।

- शोभित गुप्ता को ‘कातिल कौन’ मर्डर मिस्ट्री और फैमिली ड्रामा का परफेक्ट मिक्स लगा और इमोशंस और सस्पेंस से लबरेज लगा । आखिर में परिवार के हर सदस्य का किसी दूसरे को गुनहगार समझना और उसे बचाने के लिये गुनाह अपने सर लेने की कोशिश करना तो उन्हें बहुत ही भाया । बकौल उन के चंद ही दिनों में उन्होंने उपन्यास को चार बार पढ़ा और हर बार वो उन्हें दिल को छूता लगा ।

- धीरज मुदारका ने उपन्यास के प्रति गम्भीर असंतोष प्रकट किया, ये तक कह डाला कि उन्हें उपन्यास मेरा लिखा ही न लगा । उन्हें कहानी में कई विसंगतियां दिखीं, कई बातों में दोहराव दिखा और उपन्यास का मूल कथानक मेरे पूर्व प्रकाशित उपन्यास ‘कोई गवाह नहीं’ जैसा लगा । ‘कोई गवाह नहीं’ उन्हें भरपूर पसन्द आया था जब कि ‘कातिल कौन’ उन्हें उसके करीब भी फटकता न लगा - ऐसा उन्होंने तब कहा जब कि तसदीक की कि दोनों का आधार एक ही कथानक था ।

आखिर में फतवा दिया ‘ये वो एस एम पी नहीं जिस से मैं वाकिफ हूं’ ।

- सिद्धार्थ अरोड़ा ‘कातिल कौन’ के बारे कहते हैं कि उन्हें ‘लिफाफा चिट्ठी से भी उम्दा लगा’ यानी लेखकीय उपन्यास से भी ज्यादा मनोरंजक लगा । लेखकीय को उन्होंने 100 में से 110 नम्बर दिए । उपन्यास की शुरुआत उन्हें ‘पुरानी कहानी’ जैसी लगी लेकिन ज्यों ज्यों आगे बढती गयी, बात बनती गयी और क्लाइमेक्स ने तो उन्हें सिर खुजाने का अवसर न दिया । अलबत्ता उस चुहलबाजी, मजाक, मखौल, ह्यूमर की कमी उन्हें खली जो वो मेरे हर उपन्यास में बहुतायत में पाते हैं ।

- नागौर के डॉक्टर राजेश पराशर ने बेमन से ‘कातिल कौन’ पढना शुरु किया क्योंकि मर्डर मिस्ट्री उन्हें कम ही पसन्द आती है । कहते हैं सब से पहले तो लेखकीय ने ही खुश कर दिया, फिर साधारण सी कहानी में पहले ही पेज से जो थ्रिल, सस्पेंस चालू हुआ उसने उन को मेरे पुराने दिनों के लेखन की याद दिला दी । कहते हैं :

ऐसा कमाल आप ही कर सकते हैं कि बिल्कुल साधारण इन-हाउस मर्डर मिस्ट्री में भी सस्पेंस अन्त तक बनाए रखा । शुरुआत में कातिल का अन्दाजा लग गया था पर बीच के पृष्ठों में उस शख्स के जिक्र से आपने परहेज किया और अन्त में विस्फोट की तरह उजागर किया, वो काबिलेतारीफ था ।

सारे पात्र, लेखन शैली वगैरह उन्हें ऐन वाह-वाह लगी, फिर भी डॉक्टर साहब की कंजूसी गौरतलब है कि उन्होंने उपन्यास को दस में से आठ नम्बर दिए ।

कमी के खाते में उन्होंने दो बातों को डाला - एक तो उपन्यास का कलेवर कम था और दूसरे वो दोबारा पठनीय नहीं था । निगम परिवार ने डॉक्टर साहब को ख़ास तौर से प्रभावित किया ।

- सिडनी, ऑस्ट्रेलिया के सुधीर बड़क की निगाह में उपन्यास की खूबी है उसका सीधा-सादा, सिंपल, नो नॉनसेंस प्लाट, चुटीला लेखन और सर्वविद्यमान चरित्र चित्रण । कहते हैं कि एक बार जब घटनाक्रम शुरु होता है तो बिना झोलझाल के, बिना रुके अन्त तक ही पहुंच कर कर खत्म होता है । कहानी में कोई भी साइड स्टोरी या सब-प्लाट नहीं है, इसलिये भी प्लाट और भी तेजरफ्तार और चुस्त जान पड़ता है । कहानी में जहां कत्ल की इन्वेस्टीगेशन पाठकों को बांधे रखती है, वहां परिवार के सदस्यों का आपसी प्रेम और उन की खुद्दारी खूब विभोर करती है ।

सिंपल प्लाट और क्रिस्प राइटिंग के अलावा जो चीज इस उपन्यास को ख़ास बनाती है, वो है आपका सर्वविद्यमान चरित्रचित्रण; खासकर कि ‘एवरीथिंग इस रॉंग’ अंकल का चरित्रचित्रण । इसी चरित्रचित्रण के तहत बच्चों द्वारा अंकल को लगाई गयी फटकार और फिर बड़ी लड़की का अपने प्रेमी को टका सा जवाब परिवार की खुद्दारी को मोहरबंद करता है ।

- लखनऊ के गौरव निगम को ‘कातिल कौन’ खामियों का पुलंदा लगा । उन्होंने अपनी मेल के जरिये खामियों के खाते में दो चार छ नहीं तेंतीस - रिपीट थर्टी थ्री - खामियां दर्ज कीं । यानी चावल बीने तो कंकड़ ही कंकड़ मिले, चावल का एक दाना भी कहीं दिखाई न दिया । तेंतीस खामियों का विवरण ही पढना मेरे पर भारी गुजरा, उन को यहां उद्धृत करना तो बाकायदा सजावार काम होगा । एकाध को छोड़कर मैं उन की निकाली किसी खामी से सहमत नहीं - मैं क्या, भेजे में मगज रखने वाला कोई भी सहमत नहीं होगा । हर आपत्ति का उत्तर लिखने बैठूं तो लघु उपन्यास जितना मैटर लिखना पड़ेगा जो कि मुझे मंजूर नहीं । निगम साहब का क्या है, उन पर तो कोई खपत सवार जान पड़ती है, उपन्यास को एक बार और पढ़ेंगे तो खामियों का स्कोर डबल कर देंगे । हैरानी है कि इतना गलत, नाजायज खामियों से लबरेज उपन्यास लिखने वाले का मुरीद - जो कि वो कहते हैं कि हैं - हो सकता है !

अन्त में उन्होंने अपनी ‘पारखी’ निगाह के हवाले से लिखा है कि नॉवल एक कमजोर प्लाट पर खड़ा किया गया है । उन्होंने मुझे ये भी समझाया कि थ्रिलर नॉवल में सस्पेंस कैसे बनाए रखा जाता है - लिहाजा हांडी के स्वाद की वाकफियत कड़छी को है, बावर्ची को नहीं - कहानी में पात्र जरूरत से ज्यादा बताये, रफ्तार में उसे कहीं तेज कहीं स्लो बताया जिस की वजह से उन्हें कहानी का रिदम टूटता लगा ।

टॉप की सलाह उन्होंने ये दी कि ‘कातिल कौन’ को फुल लेंथ नॉवेल की जगह लघुकथा होना चाहिये था ।

- राजीव राज को काफी अरसे के बाद एक नो नॉनसेंस उपन्यास पढने को मिला । उन्हें कहानी सटीक लगी जिसमें कहीं भी बेवजह का झोल न पाया, अलबत्ता शिकायत हुई कि प्लाट विस्तृत नहीं था । उन्होंने उस में रहस्य रोमांच की पूरी खुराक पायी और उपन्यास को सही मायनों में थ्रिलर करार दिया । उन्होंने उपन्यास में पारिवारिक मूल्यों का जबरदस्त चित्रण पाया, उपन्यास को एक ही बैठक में पढ़ा और उसे सौ में से सौ नम्बरों से पास किया ।

- अमोल सरोज को उपन्यास बहुत ही अच्छा लगा, उस का सामाजिक तानाबाना काबिलेतारीफ लगा । बकौल उन के, मर्डर मिस्ट्री कोई नयी बात नहीं, किसी एक ने तो कातिल होना ही होता है लेकिन ‘कातिल कौन’ में जिन सामाजिक बातों का समावेश है, वो उसे अलग मुकाम पर ले जाता है । बहुत से सम्वादों को दोबारा पढने का उन का दिल किया जैसे लड़की का अपने ताऊजी को दिया जवाब कि मेरे पापा फेल नहीं हुए, जैसे लड़की की उस की भावी सास से बातचीत ।

- मेरे मेहरबान पाठक दिल्ली के शरद श्रीवास्तव ने उपन्यास के प्रति अपनी तीखी प्रतिक्रिया इन शब्दों में जाहिर की है :

शाहरुख खान की फिल्म ‘रब ने बना दी जोड़ी’ की तारीफ करते हुए एक क्रिटिक ने लिखा था कि लवर बॉय की भूमिका शाहरुख खान अब सोये सोये भी कर सकते हैं । इस का अर्थ यही था कि शाहरुख खान अब ऐसे रोल के इतने आदी हो चुके हैं कि ऐसी भूमिका के लिये उन्हें कोई विशेष मेहनत करनी पड़ती । इसी बात को मैं पाठक साहब के लिये भी कह सकता हूं । आज पचपन सालों के बाद पाठक साहब इस विधा में इतने पारंगत हो चुके हैं कि एक मर्डर मिस्ट्री सोते हुए भी लिख सकते हैं । लेकिन ‘कातिल कौन’ के लिये अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि पाठक साहब ने इसे सोये सोये ही लिखा है । इस उपन्यास में पहली बार मैंने कई फैक्चुअल एरर देखी हैं जिन की उम्मीद पाठक साहब से कभी नहीं थी ।

श्रीवास्तव साहब ने मेरी लाज रखी कि उन फैक्चुअल एरर्स का जिक्र अपनी मेल में न किया, मेरे बाकायदा इसरार करने पर उन की बाबत रूबरू मिल कर मुझे बताया । बहरहाल मेरा श्रीवास्तव साहब को आश्वासन है कि उपन्यास जब भी रीप्रिंट होगा, वे अपने द्वारा रेखांकित त्रुटियों, विसंगतियों को उस में नहीं पायेंगे ।

बावजूद उपरोक्त गम्भीर शिकायत के श्रीवास्तव साहब को ‘कातिल कौन’ बेहद पसन्द आया क्योंकि उन्होंने उस में मिस्ट्री का छोंक ही न पाया, उसे मानवीय मूल्यों से, इंसानियत की भावनाओं से लबरेज पाया । ‘कातिल कौन’ को इस बेंचमार्क पर खरा उतरता तो पाया । तकनीकी गलतियां कई बार ध्यान भटकाती हैं लेकिन उपन्यास का इमोशनल पहलू ऐसा है जो पहले पेज से ही इस से जुड़ जाता है और अन्त तक नहीं छोड़ता । उन्हें ‘कातिल कौन’ की सामाजिकता ने बांध लिया, इस तथ्य ने बांध लिया कि कैसे एक परिवार एक-दूसरे से जुड़ा रहता है; न सिर्फ परिवार के सदस्य बल्कि उन की त्रासदी से द्रवित माधव निगम जैसा स्वार्थी व्यक्ति भी अन्त में बदल जाता है और परिवार को बचाने के लिये हत्या का इल्जाम अपने सर लेने की कोशिश करता है ।

बकौल उन के, अगर ये मर्डर मिस्ट्री न होता तो एक बहुत ही जानदार सामाजिक उपन्यास होता । क्या कपिल कोठारी, क्या उसकी मां, सभी चरित्र एक वास्तविक दुनिया से आये लगते हैं । उपन्यास पाठक को एक ऐसी दुनिया में ले जाता है जहां रहने को जी चाहता है ।

आखिर में उन्होंने लिखा है कि ‘कातिल कौन’ उन्हें सौ में से सौ लगी जिन्हें पढने में उन्हें बेहद आनन्द और सन्तोष मिला; वे आप के खादिम को जिन वजुहात से पढ़ते हैं वो सभी बराबर की मिकदार में इस में मौजूद मिलीं । उन्होंने उपन्यास को फुल एन्जॉय किया ।

- नेपाल के अमान खान को ‘कातिल कौन’ गजब, माइंड ब्लोइंग, बल्ले-बल्ले लगा । शुरुआत में उन्हें कहानी ‘तीसरा वार’ से मिलती जुलती लगी, आखिर तक डर लगा रहा कि कहीं बीवी कातिल न हो, ‘तीसरा वार’ की तरह । उपन्यास पढ़ते समय उन्हें मेरे अन्य मकबूल किरदारों की तरह निगम परिवार से भी बहुत लगाव हो गया था, लिहाजा अगर इन में से कोई कातिल निकलता तो उन्हें बहुत दुख होता । उन्हें ये भी उपन्यास की बड़ी विशेषता लगी कि उसे नाहक लम्बा नहीं खींचा गया ।

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