18 फरवरी 2024

अभी जनवरी की शुरुआत थी जबकि मेरे से सवाल हुआ था कि क्या मैं आगामी एसएमपियन मीट में शामिल होना कुबूल करने की स्थिति में था! बहुत सोच विचार के बाद मेरा जवाब था कि मैं मीट के लिए एनसीआर से बाहर नहीं जा सकता था। अगर मीट दिल्ली या नोएडा में प्रस्तावित होती तो मुझे शामिल होने में कोई गुरेज नहीं था। जल्द ही अपने मेहरबान पाठकों से मुझे सूचना मिली कि अगली मीट का समारोहस्थल नोएडा निर्धारित किया गया था और दिन सारे सहभागियों की सुविधा के लिए मेरे जन्मदिन से पहले का रविवार चुना गया था जोकि 18 फरवरी को था। मेरी हामी एसएमपियन्स में सर्कुलेट होते ही तैयारियां शुरू होने लगीं। फरवरी के दूसरे सप्ताह तक संयोजकों में मुझे सूचित किया कि सौ के करीब एसएमपियंस की हाजिरी सुनिश्चित हो चुकी थी जोकि बड़ी उत्साहवर्धक खबर थी।

पहले सन् 1989 में नोएडा में वैसी मीट हुई थी जिसमें हाजिरी डेढ़ सौ से ऊपर थी और समारोहस्थल बहुत आसान पहुँच वाली जगह पर था। तब इतने मेहमानों के दो दिन के नोएडा और दिल्ली में स्टे का इंतजाम भी हाजिरी की फीस में शामिल था लेकिन इस बार ऐसा नहीं था, इस बार – सन् 2024 की मीट में – मेहमानों में अपने रहने का इंतजाम खुद करना था अलबत्ता नोएडा में उनको समारोहस्थल तक लाने लिवाने की जिम्मेदारी संयोजकों की थी। जब वक्त आया तो पाया गया कि समारोहस्थल सेक्टर 135 का एक ऐसा फार्म हाउस था जो ऐसे दुर्गम जगह पर वाकया था कि दिन में ही उसका रास्ता तलाश कर पाना  एक दुरूह कार्य था, रात की तो बात ही क्या थी। वो फार्म हाउस न मेट्रो से करीब था और न किसी जानी पहचानी ऐसी सड़क से करीब था जोकि कोई बस रूट होती। कैब ड्राइवर भी इतनी दुर्गम जगह का पैसेंजर कुबूल करने से मना न भी करता तो ‘हाँ’ कहते झिझकता जरूर। उस जहमत का यही हल था कि वेन्यू तक आवाजाही का इंतजाम लोकल ऑर्गेनाइजर्स  के जिम्मे होता, वरना गुनाह बेलज्जत वाला वाकया पेश आता। दूर दराज की जगह होने की वजह से संयोजकों ने ये दानिशमंदी भी दिखाई कि प्रोग्राम की शुरुआत आम तौर पर चुने जाने वाले वक्त से दो घंटा पहले की।

गौरतलब है कि 2019 की नोएडा मीट में भी मेरा चौकस तंदुरुस्ती पर कोई दावा नहीं था। ताजा-ताजा सेरीबरल अटैक होकर हटा था जिसकी वजह से ड्रिंक का खयाल करने की भी इजाजत नहीं थी। वहाँ ड्रिंक-डिनर का व्यापक इंतजाम था इसलिए इसरार करने वाले कई थे। बहुत मना किया था, डॉक्टर के हुक्म की दुहाई दी थी, लेकिन मुंह जूठा कर लेने के किए फिर भी मजबूर होना ही पड़ा था।               

      इस बार 18 तारीख को मेरी हालत इतनी खराब थी कि मुझे अपने पैरों पर खड़ा हो पाना मुहाल लग रहा था। घर में सब चिंतित थे, सबकी राय थी कि मुझे नहीं जाना चाहिए था लेकिन मुझे मेरे फर्ज की पुकार थी कि जैसे भी बन पड़े, जरूर जाना था। मैं मेरी खातिर दूर दूर से आकर वहाँ जमा हुए अपने प्रशंसकों को नाउम्मीद नहीं कर सकता था। आखिर मैं पुत्र सुनील के साथ वहाँ जाने के लिए तैयार हुआ। पुत्री रीमा का जाने का मन शुरू से था लेकिन ऐन वक्त पर उसने ये कह कर जाने से इंकार कर दिया कि इन्विटेशन उसे नहीं भेजा गया था। ये उसकी अपनी सोच थी वरना एक परिवार को एक ही इन्विटेशन भेजा जाता था, हर मेम्बर को अलग अलग तो नहीं भेजा जाता था!

खैर!

      संयोजकों की पकड़ में ये बात बराबर थी कि रात के अंधेरे में मुझे वेन्यू तक का रास्ता तलाश करने में दिक्कत हो सकती थी इसलिए उन्होंने मेरे लिए एक एस्कॉर्ट का इंतजाम किया। मुझे पूर्वसूचना मिली कि पराग डिमरी अपनी कार पर मुझे लेने आ रहे थे। यानी रास्ता तलाश करने की हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं थी, सुनील ने कार को पराग की कार के पीछे पीछे ड्राइव करना था।

      आखिर हम समारोहस्थल तक पहुंचे जहाँ बड़ी व्यग्रता से मेरा इंतजार हो रहा था। सौ एसएमपियंस की निगाह अप्रोच रोड पर थी। हमारी पायलट कार उन्हें पहले दिखाई दे गई इसलिए एक गगनभेदी हर्षनाद इस मद में हुआ कि मैं पहुँचा कि पहुँचा।

      जिस्मानी तौर पर मैं कितने बुरे हाल में था, इस बात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता था कि कार से उतरते ही मुझे ऐसा बुरा चक्कर आया कि जमीन, आसमान हिलते दिखाई देने लगे, आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा। मैं वहीं फर्श पर ढेर हो गया होता अगरचे कि सुनील ने और कुछ खबरदार मेहमानों ने मुझे सम्भाल न लिया होता। तत्काल जैसे जादू के जोर से एक कुर्सी हमारी कार के पहलू में प्रकट हुई, आग्रह से मुझे उस पर बिठाया गया तो मैंने कुछ राहत महसूस की। आखिर चक्कर आना बंद हुआ तो मुझे खास तौर पर मेरे लिए तैयार की गई स्टेज पर पहुंचाया गया। स्टेज पर पृष्ठभूमि में मेरी कई तस्वीरों का एक उम्दा कोलाज था, उसके पहलू में एक विशाल, चमकीले साइन की हाजिरी थी जिस पर ‘84’ दर्ज था, जोकि मेरी हालिया उम्र थी। डीजे का बाकायदा प्रबंध था और माहौल में संगीत की स्वर लहरियाँ मेरे आने से पहले से प्रवाहित हो रही थीं जो कि मेरे स्टेज पर पहुँचने पर और मुखर हो उठी थीं। स्टेज पर मेहमानों ने तुरंत मुझे घेर लिया था लेकिन छोटी सी स्टेज पर सौ मेहमान तो नहीं समा सकते थे इसलिए संयोजक राजीव रोशन ने इल्तजा जारी की कि हर कोई अपनी बारी का इंतजार करे।

सब पर इल्तजा का माकूल असर हुआ।

      मेरा जी चाहता था कि मैं खड़े होकर जनाबेहाजरीन के रूबरू होऊँ, उनसे मुखातिब होऊँ, लेकिन मुझे ये कतई मुमकिन नहीं जान पड़ता था। मैं खड़ा होता तो यकीनन आंधी में पेड़ की तरह झूमता, मुझे पता भी न लगता और मैं स्टेज पर ढेर होता। नतीजतन मुझे अपनी गति बैठे रहने में ही दिखाई दी। बहुत कमजोर आवाज में, जिसे कि लाउडस्पीकर मैग्नीफाई कर रहा था, मैं अपने मेहरबानों, कद्रदानों से मुखातिब हुआ जिन के बारे में मुझे धीरे धीरे मालूम हुआ कि नागपुर, रांची, भोपाल, हैदराबाद, छत्तीसगढ़, झारखंड, इलाहाबाद, लखनऊ, कानपुर, बनारस, चंडीगढ़ जैसी दूरदराज जगहों से आए थे जबकि दिल्ली वालों के लिए तो नोएडा का वो फार्म हाउस ही दूर दराज की जगह था। कुछ प्लेन से आए, कुछ बिना रिज़र्वेशन रेल से आए, कुछ के लिए तो दिल्ली ही अजनबी जगह थी और उन्हों ने अभी मुकाम पर पहुँच कर अपने रहने का इंतजाम खुद करना था।

इस सिलसिले में लोकल एसएमपियंस ने उनकी बेमिसाल मदद की।

      एक ही मिसाल काफी होगी।

      दो मेहमान एक लोकल एसएमपियन के सिर्फ नाम से वाकिफ थे। उन्होंने दिल्ली में रिहाइश की जगह तलाशने की बाबत उसे फोन किया तो अप्रत्याशित जवाब मिला।

      ‘वो उसके साथ उसके फ्लैट पर ठहर सकते थे’।

      गौरतलब है कि उसने न सिर्फ अजनबी मेहमानों को अपने फ्लैट पर ठहराया, बल्कि उनकी सुविधा के मद्देनजर अपने बीवी बच्चों को अपने एक रिश्तेदार के घर भेज दिया ताकि उनकी मौजूदगी में वो कोई संकोच महसूस न करते। आज के मशीनी युग में मेहमाननवाजी की ये अपने आप में मिसाल है।

      मेहमानों से मैं चंद अल्फ़ाज़ में ही मुखातिब हो पाया क्योंकि ज्यादा बोलता था तो सांस फूलती थी, काबू में नहीं आती थी। मैंने एसएमपियंस की तुलना रोटेरियंस से की। जिस प्रकार रोटरी क्लब के मेम्बरान रोटेरियंस कहलाते थे, उसी तरह अब एसएमपी फैन क्लब के मेम्बरान एसएमपियंस कहलाने लगे थे।

      गौरतलब है कि मेरे से मिलने, मेरे साथ सेल्फ़ी लेने के लिए स्टेज पर जो भी मेरे रूबरू होता था, मुझे एक गिफ्ट और एक चिट्ठी थमा देता था। गिफ्ट तो मेरी समझ में आता था लेकिन चिट्ठी! चिट्ठी किसलिए! रूबरू मिल रहे थे तो चिट्ठी में लिखने लायक कौन सी बात बाकी रह जाती! आखिर भेद खुला कि ये संयोजकों की तरफ से सब मेहमानों से दरख्वास्त थी कि वे लेखक के लिए एक विस्तृत चिट्ठी लिख के लाएं – रिपीट, हाथ से लिख के लाएं, टाइप कर के प्रिन्ट आउट न लाएं - सब ने तो उस दरख्वास्त पर अमल न किया लेकिन बाद में देखा तो इतनी चिट्ठियाँ जमा पाईं कि उनका जवाब देना तो दूर, उनको पढ़ पाना ही एक बड़ा, विकट और वक्तखाऊ काम था। मीट से अगले रोज़ 19 तारीख को मैंने चिट्ठियों का जायजा लिया था, उन्हें तरतीब दी थी और कल चार मार्च तक अभी मैं उनके जवाब ही लिख रहा था, जबकि उस दौरान मैंने दूसरा कोई काम नहीं किया था।

      क्या मैं इतनी चिट्ठियों को नजरअंदाज कर सकता था? सब को नहीं तो कुछ को नजरअंदाज कर सकता था?

      हरगिज नहीं।

      पचपन साल से मेरी कसम थी कि मैंने मेरे तक पहुंची हर चिट्ठी का जवाब देना था, भले ही उसमें कोसने दर्ज हों, गालियां दर्ज हों। लिहाजा बहुत टाइम लगा लेकिन मैंने हर चिट्ठी का जवाब दिया। कोई जवाब विस्तार माँगता था तो विस्तार से जवाब दिया, ये सोच कर उसे मुख्तसर न किया कि वक्त बचेगा।

      एक फैन ने मुझे ‘लकी स्ट्राइक’ का पैकेट दिया जिस पर सिग्रेट का नाम और निर्मात्री कंपनी का नाम इंग्लिश में था बाकी तमाम तहरीर किसी अनचीन्ही जुबान में - शायद रशियन में – दर्ज थी। वो मेरे लिए दुर्लभ गिफ्ट था। 122 नावलों में मैंने हीरो सुनील चक्रवर्ती के पसंदीदा सिग्रेट के तौर पर ‘लकी स्ट्राइक’ का जिक्र किया था और उस दौरान – कोई साठ साल के वक्फ़े के दौरान – पहले सिर्फ एक बार, कोई पचास साल पहले, मैंने ‘लकी स्ट्राइक’ के पैकेट की शक्ल देखी थी और शक्ल दिखाने वाले ने ही मुझे बताया था कि वो अमेरिकन प्रॉडक्ट था और वहाँ का मामूली - लोकल सिग्रेट चारमीनार जैसा - सिग्रेट था। मैं कभी भी स्मोकर नहीं रहा था इसलिए मुझे देसी या विलायती सिग्रेटों की कोई फर्स्टहैंड वाकफियत नहीं थी। सन् 1963 में मैंने जब सुनील सीरीज का पहला उपन्यास ‘पुराने गुनाह नए गुनहगार’ लिखना शुरू किया था तो तब मैं सिग्रेट स्मोकिंग को बहुत फैशनेबल और ‘इन-थिंग’ मानता था इसलिए मैं अपने पत्रकार हीरो को स्मोकर चित्रित करना चाहता था जबकि सिग्रेटों के देसी विदेशी ब्रांड्स से तब मैं कतई नावाकिफ था। एक ‘डिलक्स’ टेनर की खबर थी क्योंकि तब प्लेबैक सिंगर मुकेश और सी.एच. आत्मा के उनकी पब्लिसिटी के सिनेमा स्क्रीन पर दिखाए जाने वाले जिंगल बनते थे, और ‘पनामा’, ‘पासिंग शो’ और ‘चार- मीनार’ की खबर थी लेकिन ये चारों मामूली सिग्रेट थे। एक गोल्ड फ्लेक कदरन बेहतर हैसियत वाला सिग्रेट था जोकि मेरे पिता पीते थे। लेकिन  मैं किसी बड़ी हैसियत वाले सिग्रेट नेम की तलाश में था। उन्हीं दिनों मैंने लाइफ मैगजीन में ‘लकी स्ट्राइक’ का रंगीन विज्ञापन देखा तो सिग्रेट का नाम मुझे तुरंत जंच गया और मैंने अपने पत्रकार हीरो को ‘लकी स्ट्राइक’ सिग्रेट स्मोकर लिखना शुरू कर दिया। बहुत ही देर बाद मुझे मालूम हुआ कि वो कोई फ़ैन्सी, हाई क्वालिटी सिग्रेट नहीं, निहायत मामूली और आम सिग्रेट था लेकिन कंटीन्यूटी बनाये रखने के लिए मेरा उसी के साथ चिपके रहना जरूरी हो गया। मैं तो सिग्रेट पीता नहीं था, सुखद संयोग था कि सुनील भी नहीं पीता था जोकि घर में मेरे अलावा इकलौता अडल्ट मेल मेम्बर था। अब फैसला मैंने करना था कि वो पैकेट मैंने सोवेनर (souvenir) के तौर पर रख छोड़ना था या उसे किसी सिग्रेट-स्मोकिंग-मेहमान की खातिर खोलना था।      

      एक फैन ने मुझे एक टुथब्रश दिया।

      शायद इसलिए कि 84 साल की उम्र में भी मेरे सारे दांत सलामत थे और इस बात की उसे खबर थी। कैसे थी, ये जुदा मसला है।  

      बहरहाल तोहफे की कीमत दिल से होती है, जेब से नहीं। दोनों की जुगलबंदी हो तो बात ही क्या है!

      कहते हैं दिल से दिया तोहफा हासिल करने वाले के लिए नायाब होता है, उसकी कीमत रुपये-आने-पाईयों में नहीं आँकी जा सकती। मुनासिब मौके पर गुलाब का एक फूल या उसकी एक पाँखुड़ी भी माकूल, बेशकीमती गिफ्ट है। किसी मोहसिन के लिए दिल से निकली दुआ भी एक तोहफा होता है, क्या ऐसे तोहफे की कीमत लगाई जा सकती है? पाने वाला ही जानता है कि नहीं लगाई जा सकती।

      ऐसा ही एक तोहफा एक स्याही की दवात थी।

      ‘स्याही’ लफ़्ज़ ‘स्याह’ से बना है जिसका मतलब काला होता है। यही वजह थी कि मेरे बचपन के वक्त स्याही सिर्फ काली होती थी जबकि अब वो कई रंगों में उपलब्ध है – जैसे कि ब्लैक, रॉयल ब्लू, ब्लू ब्लैक, रेड, क्रिमसन, ग्रीन वगैरह। जो स्याही मुझे बतौर तोहफा हासिल हुई थी, उसका रंग अभी कोई और था जो मेरी पहचान से बाहर था क्योंकि ‘वाटरमैन-पेरिस’ नाम की उस स्याही की दवात और उसके पतले कार्डबोर्ड बॉक्स पर सबकुछ फ्रेंच में दर्ज था। स्याही का रंग मेरी समझ में ‘वायलेट’ या ‘परपल’ पड़ा क्योंकि दोनों ही शब्द उस पर से पढ़े जा सकते थे – आखिर फ्रेंच की लिपि तो इंग्लिश वाली ही होती थी। स्याही के पूरे नाम के तौर पर दवात पर और उसके बॉक्स पर जो तहरीर दर्ज थी, वो थी :

Encre Violet Tendresse Tender Purple Ink

      और उस पचास मिलीलिटर स्याही की दवात की कीमत . . . दिल थाम के पढिए . . . पाँच सौ रुपये।

      कर्टसी इम्पोर्टर, कीमत देसी करेंसी, रुपये में दर्ज थी।

     बहरहाल वो गिफ्ट दुर्लभ इसलिए भी था कि आजकल कौन स्याही से लिखता था – बल्कि लिखता ही कौन था! आई-फोन, लैपटॉप के दीवाने भला क्यों लिखेंगे! – स्टेशनरी की दस दुकानों से जाकर पूछो तो एक पर स्याही मिलती थी, मिलती थी तो जो आप चाहते थे वो नहीं मिलती थी। कभी ‘वैलडन’ की 50 एमएल की स्याही की दवात 15 रुपये की मिलती थी, अब पार्कर-क्विंक की 15 एमएल की दवात 50 रुपये की मिलती है – और वो इम्पोर्टिड भी नहीं होती, भारत में ही बनती है, सिर्फ विदेशी ट्रेड मार्क इस्तेमाल किया जाता था। और पहले, जब मैं प्राइमरी स्कूल में पढ़ता था, कोरस की स्याही की टिक्की टके की मिलती थी जिसे घोलने पर एक छोटी दवात जितनी स्याही बन जाती थी। तब फाउन्टेन पेन होता तो था लेकिन दुर्लभ था, तब लिखने का उपकरण होल्डर था जिस में निब लगाई जाती थी और उसको स्याही में डुबो कर तहरीर लिखी जाती थी। ‘जी’ की निब इंग्लिश लिखने के लिए होती थी और ‘जेड’ की उर्दू लिखने के लिए। डाकखानों में तब आम रिवाज होता था एक आदमकद डेस्क का और उस पर मौजूद एक स्याही की दवात का और एक ‘जेड’ की निब वाले होल्डर का। वो सिलसिला कब बंद हुआ, धीरे धीरे बंद हुआ या एकाएक, मुझे खबर नहीं।  

      मैं स्याही से लिखता था इसलिए वो गिफ्ट मेरे काम का था लेकिन स्याही का रंग ऐसा अनजाना, अनचीन्हा था कि इस्तेमाल में झिझक होना लाज़मी था।               

लखनऊ के शैलेन्द्र कुमार श्रीवास्तव ने एक खूबसूरत ट्रॉफी भेंट की जिसपर मेरी एक तस्वीर चित्रित थी और जन्म दिन की बधाई के तौर पर ये श्लोक दर्ज था:

प्रार्थयामहे भाव शतायु: ईश्वर: सदा त्वाम् च रक्षतु।

जो मेरी समझ में आया, वो ये था कि मैं शतायु भवूँ और ईश्वर सदा मेरी रक्षा करे।

      लखनऊ के ही राजीव सिंह को उस शाम में लिए बतौर गिफ्ट यूनीवर्सल सेरीमोनियल ड्रिंक शैम्पेन सूझा और क्या खूब सूझा! गौरतलब है कि सारी ही शैम्पेन ‘स्पार्कर्लिंग’ नहीं होतीं, केवल सेरीमोनियल शैम्पेन स्पार्कलिंग होती हैं जो कि कॉर्क खुलने पर बोतल में से उफन पड़ती हैं और पीने के अलावा मेहमानों को नहलाने के भी काम आती हैं। मुझे शैम्पेन बोतल खुलने के बाद सर्व हुई थी – बोतल कब खुली थी, कहाँ खुली थी, मुझे खबर नहीं लगी थी – तब मुझे वो स्थिर और शांत मिली थी इसलिए कहना मुहाल था कि वो सेरीमोनियल स्पार्कलिंग शैम्पेन थी या नहीं। उस एक बोतल में कितने मेहमानों ने शिरकत की थी और वो मेहमान कौन थे, मैं जानना चाहता था लेकिन नहीं जान पाया था। 

हसन अलमास ने मुझे ‘हेनेसी’ वीएसओपी (वेरी स्पेशल ओल्ड पेल) कोनियाक पेश की जोकि पता नहीं कैसे उसे मालूम था कि सर्दियों में मेरा पसंदीदा ड्रिंक था - ज्यादा नहीं, सिर्फ एक लार्ज, नीट।

      गौरतलब है कि 700 मिलीलिटर की वो बोतल दिल्ली की मार्केट में साढ़े सात हजार रुपये की आती थी।

      बोतल थमाने वाले और भी मेहरबान थे जबकि कोविड-भोगी बनने के बाद से मैं विस्की पीना बिल्कुल बंद कर चुका था। डॉक्टर की ऐसी ही हिदायत थी जिसे खुद को कुछ मना नहीं था, पेशेन्ट को सब मना था। वो सिर्फ हवाओं का शर्बत घोल कर पिए, हसरतों का मुरब्बा बना कर खाए।

      एक मेहरबान पाठक ने मुझे बहुत कीमती रिस्ट वाच गिफ्ट की। वाच का जिक्र इसलिए है कि ताजिंदगी यही एक काम था जो मैंने नहीं किया था – कभी कलाई पर घड़ी नहीं बांधी थी। मेरे ग्रैन्डचिल्ड्रन इस बाबत मेरे से बहुत हमदर्दी दिखाते थे कि ‘दादू के पास घड़ी नहीं थी’। बच्चे थे इसलिए घड़ी का न होना कीमत के साथ जोड़ कर देखते थे। जबकि घड़ी का क्या था, सौ रुपये की भी आती थी, दस लाख की भी आती थी, दस करोड़ की भी आती थी।

      आपका क्या खयाल है गिफ्ट में मिली वो घड़ी मैंने पहनी होगी?

      बाकी लेखक के लिए लेखनियों की और पुस्तकों की और लेखक के चित्रों से सुसज्जित फ़ैन्सी मगों की भरमार थीं। लेखनी एकाध को छोड़ कर सब बालपेन थे - जो बाल पेन नहीं थे उनमें सियाही के कैप्सूल का प्रबंध था जिसमें खत्म हो जाने पर सियाही भरी नहीं जाती थी, कैप्सूल बदला जाता था। जबकि बाजरिया मेरी आत्मकथा के तीन खंड ये जगविदित था कि मैं हमेशा फाउन्टेन पेन से, उसमें सियाही भर कर, लिखता था।       

      उस दौरान हजारीबाग से आए मेरे पूर्वपरिचित राहुल होरा हर क्षण मेरे पहलू में मौजूद थे और चिट्ठियाँ, गिफ्ट्स, बुकेज़ वगैरह, सब वो हैन्डल कर रहे थे और मेरी रवानगी के वक्त पूरी जिम्मेदारी से सब सामान मेरी कार में पहुँचाने का काम भी उनके हवाले था जोकि उन्होंने बाखूबी किया।

राहुल होरा व्यस्त व्यक्ति हैं, हजारीबाग में होटल चलाते हैं फिर भी इतने अनुरागी हैं कि नॉर्थ और सेंट्रल इंडिया में आयोजित लिटरेरी फेस्टिवल्स में जहाँ भी मेरी हाजिरी हो, पहुँच जाते हैं। कानपुर में तो सिर्फ मेरे नए नावल की रिलीज का फंक्शन था, जिसके आगे पीछे और कोई ईवेंट नहीं थी और मेरी वहाँ सिर्फ एक घंटे की हाजिरी थी, फिर भी राहुल होरा वहाँ मौजूद थे।

ऐसे ही मेहरबान पाठक रांची के परमजीत सिंह थे जो मेरे स्टेज पर पहुँचने के तुरंत बाद मेरे से मिले थे और फिर सेल्फ़ी-प्रेमियों की तरह मेरे गिर्द बने रहने की जगह जनाबेहाज़रीन में सबसे पीछे जा कर खड़े हुए थे।

                 

उनके साथ, खास उनके साथ, कुछ और भी गलत हुआ। आयोजकों की तरफ से सारे मेहमानों को बतौर यादगार एक हैंडबैग दिया गया था जिस में नए उपन्यास ‘दुबई गैंग’ के लाइब्रेरी संस्करण की एक संग्रहणीय प्रति थी। बकौल परमजीत, वो बैग उन्होंने थोड़ी देर के लिए कहीं टेबल पर रखा और दोबारा देखा तो वो वहाँ नहीं था। यूं वो एक यादगार तोहफे से वंचित हुए। बाद में उन्होंने संयोजकों से दरख्वास्त की कि वैसा एक बैग बमय ‘दुबई गैंग’ उन्हें कीमत अदा करने पर दिया जाए लेकिन, बकौल उनके, उनकी दरख्वास्त कुबूल न हुई जब कि संयोजकों के लिए वो मामूली जहमत थी, चाहते तो उस बाबत उनका दिल रख सकते थे।

एक मेहमान ऐसे थे जिन के परिवार में उस रोज़ शादी थी। फिर भी वो वहाँ पहुंचे अलबत्ता शादी की मसरुफियात की वजह से एक घंटे से ज्यादा न रुक पाए। जाती बार उन्होंने ये कह कर खुद को तसल्ली दी कि ‘कुछ बिल्कुल न नसीब होने से, कुछ थोड़ा-बहुत ही नसीब होना बेहतर था’।          

      देहरादून के एक प्रशंसक मिले जिनके मैं नाम से वाकिफ था क्योंकि पिछले कई दशकों से मेरी उनसे खतोकिताबत थी। आखिर . . . मुलाकात हुई।     

      एक प्रशंसक ने – जोकि अभिनय करते थे – बताया कि जीवन में उस रोज़ की शाम से पहले उनकी दो ही इच्छायें थीं – अमिताभ बच्चन के साथ काम करने की और सुरेन्द्र मोहन पाठक से मिलने की। अब उस शाम के बाद वो कह सकेंगे कि ऊपर वाले ने उनकी दोनों (!) इच्छाएं पूरी कर दीं।     

      मेरे एक पाठक व्हीलचेयर पर वहाँ पहुंचे थे। उनसे मुझे बहुत प्रेरणा प्राप्त हुई थी। जब बाहर से, दूर दराज जगह से, व्हीलचेयर की मोहताजी के आसरे आया शख्स वहाँ मौजूद था तो मैं क्यों मौजूद नहीं रह सकता था! नतीजतन पूरे दो घंटे मैंने अपने प्रशंसकों के बीच बिताए और तभी रुखसत पाई जब कि ड्रिंक्स की सर्विस की घोषणा होने लगी, जिसमें कि मेरी शिरकत न थी, न हो सकती थी।

रुखसत पाने से पहले आखिर में मैंने बहुत जज्बाती होकर एक पैगाम के तौर पर निम्नांकित दो लाइनें तरन्नुम में जनाबेहाज़रीन को सुनाईं:

गा लो मुस्कुरा लो महफिलें सजा लो,

क्या जाने कल कोई साथी छूट जाए;

जीवन की डोर बड़ी कमजोर,

क्या जाने कल ये कहाँ टूट जाए।

      पराग डिमरी ने मेरी उस वक्त की खस्ता हालत की बाबत एक अनोखी बात कही। बकौल उनके – ‘जैसे ही पाठक जी ने कार्यक्रम में अपने प्रशंसकों से मिलना शुरू किया, उन्हें संजीवनी बूटी मिल गई। उनकी तबीयत सुधरने लगी और उनके बदरंग चेहरे की रंगत भी निखरने लगी’।

      मेरे खयाल से ऐसी कोई बात नहीं थी – थी तो मुझे उसकी का इल्म नहीं था – मैं तो खस्ताहाल वहाँ पहुँचा था और खस्ताहाल ही लौटा था।       

      मैं घर पहुँचा तो मेरी हालत ऐसी थी जैसे किसी ने मुझे वाशिंग मशीन में डाल कर निचोड़ा हो। सुनील ने जहाँ कार खड़ी की थी, वहाँ सामने लिफ्ट थी लेकिन मेरे में हिम्मत नहीं थी कि मैं कार से उतर कर दस-बारह कदम परे वाकया लिफ्ट में सवार हो पाता। सुनील ने ही मुझे लिफ्ट में और आगे पाँचवीं मंजिल के मेरे बेडरूम में पहुँचाया जहाँ मैंने अपना सूट जिस्म से नोच कर उतारा, उसे फर्श पर फेंका, वही हाल जूतों का किया और जैसे तैसे कुर्ता पाजामा पहन कर बिस्तर के हवाले हुआ।

जब आँख खुली तो सुबह के ग्यारह बजे हुए थे। और तब भी मैं जगाया जाने पर, ये खबर दिए जाने पर, जागा था कि जन्मदिन की दस्ती बधाई देने के लिए मुबारक अली और विशी सिन्हा आए थे। वरना यकीनन अभी और सोता। इस संदर्भ में गौरतलब है कि प्रोस्ट्रेट की प्रॉब्लम की वजह से रात को कम से कब दो बार मुझे टॉयलेट विज़िट के लिए जरूर उठना पड़ता था लेकिन हैरानी की बात थी कि उस रात ऐसा नहीं हुआ था। मैं निर्विघ्न लगातार पंद्रह घंटे सोया था। इससे भी अंदाजा लगाया जा सकता था कि ईवेंट से वापिसी के वक्त मैं कितने बुरे हाल में था और मुझे मुकम्मल रेस्ट की कितनी सख्त जरूरत थी।  

19 को विशी के अपने कज़न का जन्मदिन होता था फिर भी वो घर से चालीस किलोमीटर दूर मुझे जन्मदिन विश करने आया था।

      ऐसा ही मेहरबान और उन्स वाला दोस्त था विशी सिन्हा।

      मुबारक अली भी।

      ऐसा एक शख्स और था जिसकी आमद सहज ही अपेक्षित थी लेकिन वो शायद निर्वाण प्राप्त कर चुका था और अब ऐसी किन्हीं औपचारिकताओं से मुक्त था।                     

ऐ दोस्त हमने तर्केमुहब्बत के बावजूद,

महसूस की है तेरी जरूरत कभी कभी।

- - -

सुरेन्द्र मोहन पाठक

05.03.2024